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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
    ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जगद्बीजपुरुष सूक्त
    69

    तं य॒ज्ञं प्रा॒वृषा॒ प्रौक्ष॒न्पुरु॑षं जा॒तम॑ग्र॒शः। तेन॑ दे॒वा अ॑यजन्त सा॒ध्या वस॑वश्च॒ ये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम्। य॒ज्ञम्। प्रा॒वृषा॑। प्र। औ॒क्ष॒न्। पुरु॑षम्। जा॒तम्। अ॒ग्र॒ऽशः। तेन॑। दे॒वाः। अ॒य॒ज॒न्तः॒। सा॒ध्याः। वस॑वः। च॒। ये ॥६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं यज्ञं प्रावृषा प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रशः। तेन देवा अयजन्त साध्या वसवश्च ये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। यज्ञम्। प्रावृषा। प्र। औक्षन्। पुरुषम्। जातम्। अग्रऽशः। तेन। देवाः। अयजन्तः। साध्याः। वसवः। च। ये ॥६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 6; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टिविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (देवाः) विद्वान् लोग (साध्याः) साधन करनेवाले [योगाभ्यासी] (च) और (वसवः) श्रेष्ठ गुणवाले हैं, उन्होंने (प्रावृषा) बड़े ऐश्वर्य के साथ [वर्तमान] (तम्) उस (यज्ञम्) पूजनीय, (अग्रशः) पहिले से [सृष्टि के पूर्व से] (जातम्) प्रसिद्ध (पुरुषम्) पुरुष [पूर्ण परमात्मा] को (तेन) उस [पुण्य कर्म] से (प्र) भले प्रकार (औक्षन्) सींचा [स्वच्छ किया, खोजा] और (अयजन्त) पूजा ॥११॥

    भावार्थ

    विद्वान् लोग योगाभ्यास आदि तप के साथ पुण्य कर्म करके परमात्मा को खोजें और पूजें ॥११॥

    टिप्पणी

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।७ और यजुर्वेद−३१।९ ॥ ११−(तम्) पूर्वोक्तम् (यज्ञम्) पूजनीयम् (प्रावृषा) प्र+वृषु प्रजननैश्वर्ययोः-क्विप्। नहिवृतिवृषि०। पा० ६।३।११६। पूर्वपदस्य दीर्घः। प्रकृष्टैश्वर्येण सह वर्तमानम् (प्र) प्रकर्षेण (औक्षन्) उक्ष सेचने। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। असिञ्चन्। हृदये शोधितवन्तः। अन्वेषणेन प्राप्तवन्तः (पुरुषम्) पूर्णं परमात्मानम् (जातम्) प्रसिद्धम् (अग्रशः) अग्रतः सृष्टेः प्राक् (तेन) पूर्वोक्तेन पुण्यकर्मणा (देवाः) विद्वांसः (अयजन्त) पूजितवन्तः (साध्याः) अ० ७।५।१। साधनवन्तः। योगाभ्यासिनः (वसवः) श्रेष्ठाः पुरुषाः (च) (ये) ॥

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    विषय

    'देव-साध्य-वसु'

    पदार्थ

    १. (तं यज्ञम्) = उस पूज्य-संगतिकरणीय-समर्पणीय पुरुषम्-ब्रह्माण्डरूपी पुरी में निवास करनेवाले अग्रश: जातम्-सृष्टि से पहले विद्यमान प्रभु को प्रावृषा-[प्र वृष] शरीर में शक्ति के सेचन के द्वारा-शरीर में उत्पन्न सोम को शरीर में ही सिक्त करने के द्वारा प्रौक्षन्-अपने हृदयक्षेत्र में सिक्त करते हैं। सोम के रक्षण के द्वारा हृदयों में प्रभु के प्रकाश को देखते हैं। २. तेन उस परमपुरुष प्रभु से देव:-देववृत्ति के पुरुष अयजन्त-अपना सम्पर्क बनाते हैं। साध्या: साधनामय जीवनवाले पुरुष च-और ये-जो वसवः-अपने निवास को उत्तम बनानेवाले व्यक्ति हैं, वे उस प्रभु से अपना मेल कर पाते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु-दर्शन के लिए शरीर में सोम का रक्षण आवश्यक है। इस रक्षण को करते हुए हम देव बनें, साधनामय जीवनवाले हों तथा अपने निवास को उत्तम बनाएँ। यही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है।

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    भाषार्थ

    (अग्रशः) समक्ष (जातम्) प्रकट हुए (तम्) उस (यज्ञम्) पूजनीय (पुरुषम्) पूर्ण परमेश्वर को, (ये साध्याः वसवः च) जो योग-साधना-सम्पन्न, तथा ऋषि-कोटि के वसु आदि ब्रह्मचारी हैं, वे (प्रावृषा) भक्तिरस की प्रकृष्ट वर्षा द्वारा (प्रौक्षन्) सींचते हैं। और (देवाः) ये दिव्य साध्य और वसु (तेन) इस विधि द्वारा (अजयन्त) परमेश्वरोपासनारूप यज्ञ रचाते हैं।

    टिप्पणी

    [यजुर्वेद में “साध्या ऋषयश्च ये” पाठ है (यजु० ३१।म० ९)। इसलिये वसवः का अर्थ किया है “ऋषि-कोटि के वसु आदि ब्रह्मचारी, वसु रुद्र और आदित्य ब्रह्मचारी। यज्ञम्= "यज् देवपूजा।”]

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    विषय

    महान् पुरुष का वर्णन।

    भावार्थ

    (तम्) उस (यज्ञम्) पूजनीय यज्ञस्वरूप (अग्रशः) समरत सृष्टि के भी पूर्व (जातम्) विद्यमान जगत् के कर्त्ता को योगिजन (प्रावृषा) वर्षा के समान आत्मरूप भूमि में ब्रह्मानन्द के वर्षण करने वाले धर्ममेघ समाधि द्वारा (प्र औक्षन्) खूब अभिषिक्त करते हैं, आप्लावित करते हैं। (देवाः) देव, ज्ञानी पुरुष, (साध्याः) योगाभ्यास आदि साधन के करने हारे और (ये च) जो (वसवः) प्राणों के वश करने वाले हैं वे (तेन) उसी यज्ञमय परम पुरुष से (अयजन्त) आत्मयज्ञ सम्पादन करते हैं।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘तं यज्ञं बर्हिषि’ (द्वि०) ‘अग्रतः’ (च०) ‘साध्या ऋषयश्च ये’ इति ऋ० यजु०। ‘साध्याश्च’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुरुषसूक्तम्। नारायण ऋषिः। पुरुषो देवता। अनुष्टुभः। षोडशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purusha, the Cosmic Seed

    Meaning

    The Rshis of universal vision invoke and worship the Purusha, self-manifested in advance of everything else, with profuse showers of love and devotion. And by virtue of the presence, immanent in Prakrti, of the Purusha, the natural forces of Sadhya pranas and Vasu abodes of life carry on the yajna of evolution, and the divine sages too continue to visualise the yajna and the worship.

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    Translation

    That earliest-born Purusa (cosmic man), the sacrifice, they sprinkled with rain. With Him, the enlightened ones, the perfectibles and the sages performed sacrifice. (Yv. XXXI.9. Vari.)

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    Translation

    The cosmic elements moisten that worship able Purusha. who is manifest in the beginning with rain and through Him Devas, Sadhyas and these Vasus perform the Yajna of creation.

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    Translation

    The devotees instal, in the very recesses of their hearts through peaceshowering meditation, the Adorable and Perfect God, Who is existent even before the creation of the universe. The learned persons, the yogis with special spiritual powers, and the self-controllers get united with Him in deep meditation.

    Footnote

    cf. Rig, 10.90.7, Yajur, 31.9. The first half of the verse may also refer to the great sacrifice, by the forces of nature in the vast universe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।९०।७ और यजुर्वेद−३१।९ ॥ ११−(तम्) पूर्वोक्तम् (यज्ञम्) पूजनीयम् (प्रावृषा) प्र+वृषु प्रजननैश्वर्ययोः-क्विप्। नहिवृतिवृषि०। पा० ६।३।११६। पूर्वपदस्य दीर्घः। प्रकृष्टैश्वर्येण सह वर्तमानम् (प्र) प्रकर्षेण (औक्षन्) उक्ष सेचने। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। असिञ्चन्। हृदये शोधितवन्तः। अन्वेषणेन प्राप्तवन्तः (पुरुषम्) पूर्णं परमात्मानम् (जातम्) प्रसिद्धम् (अग्रशः) अग्रतः सृष्टेः प्राक् (तेन) पूर्वोक्तेन पुण्यकर्मणा (देवाः) विद्वांसः (अयजन्त) पूजितवन्तः (साध्याः) अ० ७।५।१। साधनवन्तः। योगाभ्यासिनः (वसवः) श्रेष्ठाः पुरुषाः (च) (ये) ॥

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