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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - अग्निः, आयुः, बृहस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    पार्थि॑वस्य॒ रसे॑ देवा॒ भग॑स्य त॒न्वो॑३ बले॑। आ॑यु॒ष्य॑म॒स्मा अ॒ग्निः सूर्यो॒ वर्च॒ आ धा॒द्बृह॒स्पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पार्थि॑वस्य । रसे॑ । दे॒वा॒: । भग॑स्य । त॒न्व᳡: । बले॑ । आ॒यु॒ष्य᳡म् । अ॒स्मै । अ॒ग्नि: । सूर्य॑: । वर्च॑: । आ । धा॒त् । बृ॒ह॒स्पति॑: ॥२९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पार्थिवस्य रसे देवा भगस्य तन्वो३ बले। आयुष्यमस्मा अग्निः सूर्यो वर्च आ धाद्बृहस्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पार्थिवस्य । रसे । देवा: । भगस्य । तन्व: । बले । आयुष्यम् । अस्मै । अग्नि: । सूर्य: । वर्च: । आ । धात् । बृहस्पति: ॥२९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (देवाः) हे व्यवहारकुशल, महात्माओं ! (अग्निः) सर्वव्यापक, (सूर्यः) लोकों में चलनेवाला, वा लोकों का चलानेवाला, (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े [ब्रह्माण्डों] का रक्षक परमेश्वर ! (पार्थिवस्य) पृथिवी पर वर्त्तमान (भगस्य) ऐश्वर्य के (तन्वः) विस्तार के (रसे) रस अर्थात् तत्त्वज्ञान और (बले) बल में (अस्मै) इस [जीव] को (आयुष्यम्) आयु बढ़ानेवाला (वर्चः) तेज [शरीरकान्ति और ब्रह्मवर्चस] (आ) सब ओर से (धात्=धत्तात्) देवे ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से आध्यात्मिक पक्ष में परमेश्वर के ज्ञान से और आधिभौतिक पक्ष में (अग्नि) जो बिजुली आदि रूप से सब शरीरों में बड़ा उपयोगी पदार्थ है और (सूर्य) जो अनेक बड़े-बड़े लोकों को अपने आकर्षण आदि में रखता है, इनके विज्ञान से, अपनी शरीरकान्ति और आत्मिकशक्ति बढ़ावें और पृथिवी आदि पदार्थों के सारतत्त्व से उपकार लेकर प्रतापी, यशस्वी और चिरंजीवी बनें ॥१॥

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