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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन

    ब॒भ्रोरर्जु॑नकाण्डस्य॒ यव॑स्य ते पला॒ल्या तिल॑स्य तिलपि॒ञ्ज्या। वी॒रुत्क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ब॒भ्रो: । अर्जु॑नऽकाण्डस्य । यव॑स्य । ते॒ । प॒ला॒ल्या । तिल॑स्य । ति॒ल॒ऽपि॒ञ्ज्या । वी॒रुत् । क्षे॒त्रि॒य॒ऽनाश॑नी । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बभ्रोरर्जुनकाण्डस्य यवस्य ते पलाल्या तिलस्य तिलपिञ्ज्या। वीरुत्क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बभ्रो: । अर्जुनऽकाण्डस्य । यवस्य । ते । पलाल्या । तिलस्य । तिलऽपिञ्ज्या । वीरुत् । क्षेत्रियऽनाशनी । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    [हे ईश्वर !] (ते) तेरे [दिये] (बभ्रोः) पोषण करनेवाले, (अर्जुनकाण्डस्य) श्वेत स्तम्भ [डाँठा]वाले (यवस्य) यव अन्न की (पलाल्या) पालनशक्ति से और (तिलस्य) तिल की (तिलपिञ्ज्या) चिकनाई से (क्षेत्रियनाशनी) शरीर वा वंश के रोग नाश करनेवाली (वीरुत्) ओषधि (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश के दोष वा रोग को (अप+उच्छतु) निकाल देवे ॥३॥

    भावार्थ - जैसे परिपक्व और नवीन यव, तिल आदि पदार्थों के यथावत् उपयोग से और औषधों के सेवन से शारीरिक बल स्थिर रहता है, वैसे ही मनुष्य उत्तम विद्या के प्रकाश से आत्मिक दोषों की निवृत्ति करके आनन्द प्राप्त करें ॥३॥

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