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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 101/ मन्त्र 2
अ॒ग्निम॑ग्निं॒ हवी॑मभिः॒ सदा॑ हवन्त वि॒श्पति॑म्। ह॑व्य॒वाहं॑ पुरुप्रि॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्ऽअ॑ग्निम् । हवी॑ऽभि: । सदा॑ । ह॒व॒न्त॒ । वि॒श्पति॑म् ॥ ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । पु॒रु॒ऽप्रि॒यम् ॥१०१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम्। हव्यवाहं पुरुप्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्ऽअग्निम् । हवीऽभि: । सदा । हवन्त । विश्पतिम् ॥ हव्यऽवाहम् । पुरुऽप्रियम् ॥१०१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 101; मन्त्र » 2
विषय - भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश।
पदार्थ -
[हे मनुष्यो !] (हवीमभिः) ग्रहण करने योग्य व्यवहारों से (विश्पतिम्) प्रजाओं के पालनेवाले, (हव्यवाहम्) देने-लेने योग्य पदार्थों के पहुँचानेवाले, (पुरुप्रियम्) बहुत प्रिय करनेवाले (अग्निमग्निम्) अग्नि-अग्नि [अर्थात् पृथिवी की आग, बिजुली और सूर्य] को (सदा) सदा (हवन्त) तुम ग्रहण करो ॥२॥
भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि प्रसिद्ध अग्नि, बिजुली और सूर्य को कला यन्त्र आदि में प्रयुक्त करके सदा सुख की वृद्धि करें ॥२॥
टिप्पणी -
२−(अग्निमग्निम्) प्रत्येकप्रकारं विद्युत्सूर्यपार्थिवाग्निरूपम् (हवीमभिः) अथ० २०।७२।३। ग्राह्यव्यवहारैः (सदा) (हवन्त) गृह्णीत (विश्पतिम्) प्रजानां पालकम् (हव्यवाहम्) दातव्यग्राह्यपदार्थप्रापकम् (पुरुप्रियम्) बहुहितकरम् ॥