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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह जज्ञा॒नो वृ॒क्तब॑र्हिषे। असि॒ होता॑ न॒ ईड्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । ज॒ज्ञा॒न: । वृ॒क्तऽब॑र्हिषे ॥ असि॑ । होता॑ । न॒: । ईड्य॑: ॥१०१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे। असि होता न ईड्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । देवान् । इह । आ । वह । जज्ञान: । वृक्तऽबर्हिषे ॥ असि । होता । न: । ईड्य: ॥१०१.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 101; मन्त्र » 3
विषय - भौतिक अग्नि के गुणों का उपदेश।
पदार्थ -
(अग्ने) हे अग्नि ! [आग, बिजुली और सूर्य] (जज्ञानः) प्रकट होता हुआ तू (देवान्) दिव्य पदार्थों को (इह) यहाँ (वृक्तबर्हिषे) हिंसा छोड़नेवाले विद्वान् के लिये (आ वह) ला। तू (नः) हमारे लिये (होता) धन देनेवाला और (ईड्यः) खोजने योग्य (असि) है ॥३॥
भावार्थ - मनुष्य अग्नि, बिजुली और सूर्य की विद्या को खोज करके अनेक प्रकार उपयोग करें और उत्तम-उत्तम पदार्थ प्राप्त करके सुखी होवें ॥३॥
टिप्पणी -
३−(अग्ने) हे विद्युत्सूर्यपार्थिवाग्निरूप (देवान्) दिव्यपदार्थान् (इह) (आ वह) प्रापय (जज्ञानः) प्रादुर्भूतः सन् (वृक्तबर्हिषे) अ० २०।२।१। त्यक्तहिंसाय विदुषे (असि) (होता) धनस्य दाता (नः) अस्मभ्यम् (ईड्यः) अध्येष्टव्यः ॥