Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 107

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 2
    सूक्त - वत्सः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१०७

    ओज॒स्तद॑स्य तित्विष उ॒भे यत्स॒मव॑र्तयत्। इन्द्र॒श्चर्मे॑व॒ रोद॑सी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ओज॑: । तत् । अ॒स्य॒ । ति॒त्वि॒षे॒ । उ॒भे इति॑ । यत् । स॒म्ऽअव॑र्तयत् ॥ इन्द्र॑: । चर्म॑ऽइव। रोद॑सी॒ इति॑ ॥१०७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत्समवर्तयत्। इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ओज: । तत् । अस्य । तित्विषे । उभे इति । यत् । सम्ऽअवर्तयत् ॥ इन्द्र: । चर्मऽइव। रोदसी इति ॥१०७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (अस्य) इस [परमेश्वर] का (ओजः) बल (तत्) तब (तित्विषे) प्रकाशित हुआ, (यत्) जब (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और भूमि को (चर्म इव) चमड़े के समान (समवर्तयत्) यथाविधि वर्तमान किया ॥२॥

    भावार्थ - जैसे कोई चमड़े को कमाकर ठीक करता है, वैसे ही परमात्मा परमाणुओं के संयोग-वियोग से सृष्टि बनाता है, तब उसकी महिमा प्रकट होती है ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top