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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 107

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 15
    सूक्त - कुत्सः देवता - सूर्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१०७

    सूर्यो॑ दे॒वीमु॒षसं॒ रोच॑मानां॒ मर्यो॒ न योषा॑म॒भ्येति प॒श्चात्। यत्रा॒ नरो॑ देव॒यन्तो॑ यु॒गानि॑ वितन्व॒ते प्रति॑ भ॒द्राय॑ भ॒द्रम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑: । दे॒वीम् । उ॒षस॑म् । रोच॑मानाम् । मर्य॑: । न । योषा॑म् । अ॒भि । ए॒ति॒ । प॒श्चात् ॥ यत्र॑ । नर॑: । दे॒व॒ऽयन्त॑: । यु॒गानि॑ । वि॒ऽत॒न्व॒ते । प्रति॑ । भ॒द्राय॑ । भ॒द्रम् ॥१०७.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मर्यो न योषामभ्येति पश्चात्। यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्य: । देवीम् । उषसम् । रोचमानाम् । मर्य: । न । योषाम् । अभि । एति । पश्चात् ॥ यत्र । नर: । देवऽयन्त: । युगानि । विऽतन्वते । प्रति । भद्राय । भद्रम् ॥१०७.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    (सूर्यः) सूर्यमण्डल (देवीम्) देवी [दिव्यगुणवाली] (रोचमानाम्) रुचि करानेवाली (उषसम्) उषा [प्रभात वेला] के (पश्चात्) पीछे-पीछे (अभि) सब ओर से (एति) प्राप्त होता है, (न) जैसे (मर्यः) मनुष्य (योषाम्) अपनी स्त्री को [प्रीति से प्राप्त होता है], (यत्र) जहाँ [संसार के बीच] (देवयन्तः) व्यवहार चाहनेवाले (नरः) नर [नेता लोग] (भद्रम् प्रति) आनन्दस्वरूप परमात्मा के सामने (भद्राय) आनन्द के लिये (युगानि) युगों [वर्षों] को (वितन्वते) फैलाते हैं ॥१॥

    भावार्थ - जैसे ईश्वरकृत नियमों के अनुसार सूर्य और उषा के सम्बन्ध से प्रकाश, और पुरुष और स्त्री के सम्बन्ध से सन्तान होता है, वैसे ही बुद्धिमान् लोग सुखस्वरूप परमात्मा की आज्ञा में रहकर नियमपूर्वक सुख भोगते हुए अपना जीवनकाल बढ़ावें ॥१॥

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