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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 118

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 118/ मन्त्र 4
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-११८

    इन्द्रो॑ म॒ह्ना रोद॑सी पप्रथ॒च्छव॒ इन्द्रः॒ सूर्य॑मरोचयत्। इन्द्रे॑ ह॒ विश्वा॒ भुव॑नानि येमिर॒ इन्द्रे॑ सुवा॒नास॒ इन्द॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । म॒ह्ना । रोद॑सी॒ इति॑ । प॒प्र॒थ॒त् । शव॑: । इन्द्र॑: । सूर्य॑म् । अ॒रो॒च॒य॒त् ॥ इन्द्रे॑ । ह॒ । विश्वा॑ । भुव॑नानि । ये॒मि॒र॒ । इन्द्रे॑ । सु॒वा॒नास॑: । इन्द॑व: ॥११८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मह्ना रोदसी पप्रथच्छव इन्द्रः सूर्यमरोचयत्। इन्द्रे ह विश्वा भुवनानि येमिर इन्द्रे सुवानास इन्दवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । मह्ना । रोदसी इति । पप्रथत् । शव: । इन्द्र: । सूर्यम् । अरोचयत् ॥ इन्द्रे । ह । विश्वा । भुवनानि । येमिर । इन्द्रे । सुवानास: । इन्दव: ॥११८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 118; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमात्मा] ने (शवः) बल की (मह्ना) महिमा से (रोदसी) आकाश और भूमि को (पप्रथत्) फैलाया है, (इन्द्रः) इन्द्र [परमात्मा] ने (सूर्यम्) सूर्य को (अरोचयत्) चमकाया है। (इन्द्रे) इन्द्र [परमात्मा] में (ह) ही (विश्वा) सब (भुवनानि) भुवन (येमिरे) ठहरे हैं, (इन्द्रे) इन्द्र [परमात्मा] में (सुवानासः) उत्पन्न होते हुए (इन्दवः) ऐश्वर्य हैं ॥४॥

    भावार्थ - जिस परमात्मा ने ब्रह्माण्ड के भीतर सब ऐश्वर्यवान् पदार्थ रचे हैं, मनुष्य उसकी भक्ति से सब पदार्थों से उपकार लेकर उन्नति करें ॥४॥

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