अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 9
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
सुप्र॑पा॒णा च॑ वेश॒न्ता रे॒वान्त्सुप्रति॑दिश्ययः। सुय॑भ्या क॒न्या कल्या॒णी तो॒ता कल्पे॑षु सं॒मिता॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसुप्र॑पा॒णा । च । वेश॒न्ता । रे॒वान् । सुप्रति॑दिश्यय: ॥ सुय॑भ्या । कन्या॑ । कल्या॒णी । तो॒ता । कल्पे॑षु । सं॒मिता॑ ॥१२८.९॥
स्वर रहित मन्त्र
सुप्रपाणा च वेशन्ता रेवान्त्सुप्रतिदिश्ययः। सुयभ्या कन्या कल्याणी तोता कल्पेषु संमिता ॥
स्वर रहित पद पाठसुप्रपाणा । च । वेशन्ता । रेवान् । सुप्रतिदिश्यय: ॥ सुयभ्या । कन्या । कल्याणी । तोता । कल्पेषु । संमिता ॥१२८.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 9
विषय - मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ -
(च) जैसे (सुप्रपाणा) अच्छे पनघटवाला (वेशन्ता) सरोवर है, [वैसे ही] (सुप्रतिदिश्ययः) सुन्दर प्रतिदान करनेवाला (रेवान्) धनवान् और (सुयभ्या) अच्छे प्रकार मैथुनयोग्य [नीरोग होकर सन्तान उत्पन्न करने में समर्थ] (कल्याणी) सुन्दर (कन्या) कन्या है, (तोता) यह-यह कर्म (कल्पेषु) शास्त्रविधानों में (संमिता) प्रमाणित है ॥९॥
भावार्थ - जल भरे सरोवर की उपयोगिता जल काम में आने से, धन की उचित व्यय करने से, और रूपवती स्त्री की वीर सन्तान उत्पन्न करने से होती है ॥९॥
टिप्पणी -
९−(सुप्रपाणा) शोभनपानस्थानोपेतः (च) उपमार्थे (वेशन्ता) तडागः (रेवान्) धनवान् (सुप्रतिदिश्ययः) म० ८। योग्यप्रतिदानप्रापकः (सुयभ्या) म० ८। सुमैथुनयोग्या। आरोग्यात् सन्तानोत्पादनसमर्था। अन्यद् गतम् ॥