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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 128

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 128/ मन्त्र 12
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रो वा छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    यदि॑न्द्रादो दाशरा॒ज्ञे मानु॑षं॒ वि गा॑हथाः। विरू॑पः॒ सर्व॑स्मा आसीत्स॒ह य॒क्षाय॒ कल्प॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । इ॑न्द्र । अ॒द: । दा॑शरा॒ज्ञे । मानु॑ष॒म् । वि । गा॑हथा: ॥ विरू॑प॒: । सर्व॑स्मै । आसीत् । स॒ह । य॒क्षाय॒ । कल्प॑ते ॥१२८.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदिन्द्रादो दाशराज्ञे मानुषं वि गाहथाः। विरूपः सर्वस्मा आसीत्सह यक्षाय कल्पते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । इन्द्र । अद: । दाशराज्ञे । मानुषम् । वि । गाहथा: ॥ विरूप: । सर्वस्मै । आसीत् । सह । यक्षाय । कल्पते ॥१२८.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 128; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (यत्) जब, (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (दाशराज्ञे) दानपात्र सेवकों के राजा के लिये [अर्थात् अपने लिये] (अदः) उस [वेदोक्त] (मानुषम्) मनुष्य के कर्म को (वि गाहथाः) तूने बिलो डाला है [गड़बड़ कर दिया है]। (सर्वस्मै) सबके लिये (विरूपः) वह दुष्ट रूपवाला व्यवहार (आसीत्) हुआ है। यह [मनुष्य] (यक्षाय) पूजनीय कर्म के लिये (सह) मिलकर (कल्पते) समर्थ होता है ॥१२॥

    भावार्थ - जो मनुष्य वेदमर्यादा को तोड़कर स्वार्थ के लिये सेवक आदि को सताता है, वह सबको कष्ट देता है, इसलिये मनुष्य सदा परोपकार करे ॥१२॥

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