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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 133

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 1
    सूक्त - देवता - कुमारी छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    वित॑तौ किरणौ॒ द्वौ तावा॑ पिनष्टि॒ पूरु॑षः। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वित॑तौ । किरणौ॒ । द्वौ । तौ । आ॑ । पिनष्टि॒ । पूरु॑ष: ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विततौ किरणौ द्वौ तावा पिनष्टि पूरुषः। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विततौ । किरणौ । द्वौ । तौ । आ । पिनष्टि । पूरुष: ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (द्वौ) दोनों (किरणौ) प्रकाश की किरणें [शारीरिक बल और आत्मिक पराक्रम] (विततौ) फैले हुए हैं, (तौ) उन दोनों को (पूरुषः) पुरुष [देहधारी जीव] (आ) सब ओर से (पिनष्टि) पीसता है [सूक्ष्म रीति से काम में लाता है]। (कुमारि) हे कुमारी ! [कामनायोग्य स्त्री] (वै) निश्चय करके (तत्) वह (तथा) वैसा (न) नहीं है, (कुमारि) हे कुमारी ! (यथा) जैसा (मन्यसे) तू मानती है ॥१॥

    भावार्थ - संसार में सब प्राणी शरीर और आत्मा की स्वस्थता से सूक्ष्म विचार और कर्म के द्वारा उन्नति करते हैं, स्त्री आदि भी समय को व्यर्थ न खोकर सदा पुरुषार्थ करें ॥१॥

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