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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 133

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 3
    सूक्त - देवता - कुमारी छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    निगृ॑ह्य॒ कर्ण॑कौ॒ द्वौ निरा॑यच्छसि॒ मध्य॑मे। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    निगृ॑ह्य॒ । कर्ण॑कौ॒ । द्वौ । निरा॑यच्छसि॒ । मध्य॑मे ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरायच्छसि मध्यमे। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निगृह्य । कर्णकौ । द्वौ । निरायच्छसि । मध्यमे ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (मध्यमे) हे मध्यस्थ होनेवाली ! [स्त्री] (द्वौ) दोनों (कर्णकौ) कोमल कानों को (निगृह्य) वश में करके [सुनने में लगवाकर] (निरायच्छसि) [सन्तानों को] तू नियम में चलाती है। (कुमारि) हे कुमारी ! .............. [म० १] ॥३॥

    भावार्थ - माता आदि ध्यान दिलाकर बालकों को सुशिक्षा देवें, स्त्री आदि ........... [म० १] ॥३॥

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