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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 133

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 133/ मन्त्र 2
    सूक्त - देवता - कुमारी छन्दः - निचृदनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    मा॒तुष्टे कि॑रणौ॒ द्वौ निवृ॑त्तः॒ पुरु॑षानृते। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा॒तु: । ते॒ । कि॑रणौ॒ । द्वौ । निवृ॑त्त॒: । पुरु॑षान् । ऋ॒ते । न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मातुष्टे किरणौ द्वौ निवृत्तः पुरुषानृते। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मातु: । ते । किरणौ । द्वौ । निवृत्त: । पुरुषान् । ऋते । न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 133; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (मातुः ते) तुझ माता के (द्वौ) दोनों (किरणौ) प्रकाश की किरणें [शारीरिक बल और आत्मिक पराक्रम] (पुरुषान्) पुरुषों [शरीरधारी जीवों] को (ऋते) सत्य शास्त्र में (निवृत्तः) प्रकाशमान करते हैं। (कुमारि) हे कुमारी ! ........... [म० १] ॥२॥

    भावार्थ - माता आदि से ही सुशिक्षा पाकर सब सन्तान पुरुषार्थी होते हैं। स्त्री आदि .......... [म० १] ॥२॥

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