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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 140

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 140/ मन्त्र 5
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४०

    यद्वां॑ क॒क्षीवाँ॑ उ॒त यद्व्य॑श्व॒ ऋषि॒र्यद्वां॑ दी॒र्घत॑मा जु॒हाव॑। पृथी॒ यद्वां॑ वै॒न्यः साद॑नेष्वे॒वेदतो॑ अश्विना चेतयेथाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वा॒म् । क॒क्षीवा॑न् । उ॒त । यत् । वि॒ऽअ॑श्व: । ऋषि॑: । यत् । वा॒म् । दी॒र्घऽत॑मा:। जु॒हाव॑ ॥ पृथी॑ । यत् । वा॒म् । वै॒न्य: । सद॑नेषु । ए॒व । इत् । अत॑: । अ॒श्वि॒ना॒ । चे॒त॒ये॒था॒म् ॥१४०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वां कक्षीवाँ उत यद्व्यश्व ऋषिर्यद्वां दीर्घतमा जुहाव। पृथी यद्वां वैन्यः सादनेष्वेवेदतो अश्विना चेतयेथाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वाम् । कक्षीवान् । उत । यत् । विऽअश्व: । ऋषि: । यत् । वाम् । दीर्घऽतमा:। जुहाव ॥ पृथी । यत् । वाम् । वैन्य: । सदनेषु । एव । इत् । अत: । अश्विना । चेतयेथाम् ॥१४०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 140; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (कक्षीवान्) गतिवाले [वा शासनवाले] पुरुष ने, (उत) और (यत्) जैसे (व्यश्वः) विविध वेगवाले ने और (यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (दीर्घतमाः) दीर्घतमा [लंबा हो गया है, चला गया है अन्धकार जिससे ऐसे] (ऋषिः) ऋषि [विज्ञानी] ने, (यत्) जैसे (वाम्) तुम दोनों को (वैन्यः) बुद्धिमानों के पास रहनेवाले (पृथी) विस्तारवाले पुरुष ने (सदनेषु) अपने स्थानों में (जुहाव) ग्रहण किया है, (अश्विना) हे दोनों अश्वी ! [व्यापक दिन-राति] (एव इत्) वैसे ही (अतः) इस [मेरे वचन] को (चेतयेथाम्) जानो ॥॥

    भावार्थ - जैसे-जैसे मनुष्य दिन-राति का सुप्रयोग करते हैं, वैसे ही दिन-राति उनको सुख देते हैं ॥॥

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