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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 141

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 141/ मन्त्र 3
    सूक्त - शशकर्णः देवता - अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सूक्त १४१

    यद॒द्याश्विना॑व॒हं हु॒वेय॒ वाज॑सातये। यत्पृ॒त्सु तु॒र्वणे॒ सह॒स्तच्छ्रेष्ठ॑म॒श्विनो॒रवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒द्य । अ॒श्विनौ॑ । अ॒हम् । हु॒वेय॑ । वाज॑ऽसातये ॥ यत् । पृ॒त्ऽसु । तु॒र्वणे॑ । सह॑: । तत् । श्रेष्ठ॑म् । अ॒श्विनो॑: । अव॑: ॥१४१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्याश्विनावहं हुवेय वाजसातये। यत्पृत्सु तुर्वणे सहस्तच्छ्रेष्ठमश्विनोरवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अद्य । अश्विनौ । अहम् । हुवेय । वाजऽसातये ॥ यत् । पृत्ऽसु । तुर्वणे । सह: । तत् । श्रेष्ठम् । अश्विनो: । अव: ॥१४१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 141; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यत्) जब (अद्य) (अश्विनौ) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] को (वाजसातये) विज्ञान के लाभ के लिये (अहम्) मैं (हुवेय) बुलाऊँ। और (पृत्सु) संग्रामों के बीच (तुर्वणे) शत्रुओं के मारने में (यत्) जो (सहः) बल है, (तत्) वह (अश्विनोः) दोनों अश्वी [व्यापक दिन-राति] की (श्रेष्ठम्) अति उत्तम (अवः) रक्षा [होवे] ॥३॥

    भावार्थ - मनुष्य सदा विज्ञान के साथ अपना सामर्थ्य बढ़ावें, और शत्रुओं को मारकर सुखी होवें ॥३॥

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