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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 15/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१५

    प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे। अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । मंहि॑ष्ठाय । बृ॒ह॒ते । बृ॒हत्ऽर॑ये । स॒त्यऽशु॑ष्माय । त॒वसे॑ । म॒तिम् । भ॒रे॒ ॥ अ॒पाम्ऽइ॑व । प्र॒व॒णे । यस्य॑ । दु॒:ऽधर॑म् । राध॑: । वि॒श्वऽआ॑यु । शव॑से । अप॑ऽवृतम् ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मंहिष्ठाय बृहते बृहद्रये सत्यशुष्माय तवसे मतिं भरे। अपामिव प्रवणे यस्य दुर्धरं राधो विश्वायु शवसे अपावृतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । मंहिष्ठाय । बृहते । बृहत्ऽरये । सत्यऽशुष्माय । तवसे । मतिम् । भरे ॥ अपाम्ऽइव । प्रवणे । यस्य । दु:ऽधरम् । राध: । विश्वऽआयु । शवसे । अपऽवृतम् ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 15; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (मंहिष्ठाय) अत्यन्त दानी, (बृहते) महागुणी, (बृहद्रये) महाधनी, (सत्यशुष्माय) सच्चे बलवान् [सभाध्यक्ष] के लिये (तवसे) बल पाने को (मतिम्) बुद्धि (प्र) उत्तम रीति से (भरे) मैं धारण करता हूँ। (प्रवणे) ढालू स्थान में (अपाम् इव) जलों के [प्रवाह के] समान, (यस्य) जिस [सभाध्यक्ष] का (दुर्धरम्) बेरोक, (विश्वायु) सबको जीवन देनेवाला (राधः) धन (शवसे) बल के लिये (अपावृतम्) फैला हुआ है ॥१॥

    भावार्थ - जो सभाध्यक्ष सुपात्रों को दान देकर प्रजा को सुशिक्षित बलवान् बनाता है, उसके उपकारों की महिमा ऐसी सुखदायक होती है, जैसे जल ढालू स्थानों में बहकर खेती आदि बढ़ाकर आनन्द देता है ॥१॥

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