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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३१

    ता व॒ज्रिणं॑ म॒न्दिनं॒ स्तोम्यं॒ मद॒ इन्द्रं॒ रथे॑ वहतो हर्यता॒ हरी॑। पु॒रूण्य॑स्मै॒ सव॑नानि॒ हर्य॑त॒ इन्द्रा॑य॒ सोमा॒ हर॑यो दधन्विरे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ता । व॒ज्रिण॑म् । म॒न्दिन॑म् । स्तोम्य॑म् । मदे॑ । इन्द्र॑म् । रथे॑ । व॒ह॒त॒: । ह॒र्य॒ता । हरी॒ इति॑ ॥ पुरूणि॑ । अ॒स्मै॒ । सव॑नानि । हर्य॑ते । इन्द्रा॑य । सोमा॑: । हर॑य: । द॒ध॒न्वि॒रे॒ ॥३१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ता वज्रिणं मन्दिनं स्तोम्यं मद इन्द्रं रथे वहतो हर्यता हरी। पुरूण्यस्मै सवनानि हर्यत इन्द्राय सोमा हरयो दधन्विरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ता । वज्रिणम् । मन्दिनम् । स्तोम्यम् । मदे । इन्द्रम् । रथे । वहत: । हर्यता । हरी इति ॥ पुरूणि । अस्मै । सवनानि । हर्यते । इन्द्राय । सोमा: । हरय: । दधन्विरे ॥३१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (ता) वे दोनों (हर्यता) प्यारे (हरी) दुःख हरनेवाले दोनों बल और पराक्रम (वज्रिणम्) वज्रधारी, (मन्दिनम्) आनन्दकारी, (स्तोम्यम्) स्तुतियोग्य (इन्द्रम्) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] को, (मदे) सुख के लिये (रथे) रमण साधन जगत् में (वहतः) ले चलते हैं। (सोमाः) शान्त स्वभाववाले (हरयः) मनुष्यों ने (अस्मै) इस (हर्यते) प्यारे (इन्द्राय) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले पुरुष] के लिये (पुरूणि) बहुत से (सवनानि) ऐश्वर्य (दधन्विरे) प्राप्त किये हैं ॥१॥

    भावार्थ - जो मनुष्य धर्म के साथ बल और पराक्रम करके संसार को आनन्द देता है, सब लोग मान आदर करके उसका ऐश्वर्य बढ़ाते हैं ॥१॥

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