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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 31/ मन्त्र 2
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३१

    अरं॒ कामा॑य॒ हर॑यो दधन्विरे स्थि॒राय॑ हिन्व॒न्हर॑यो॒ हरी॑ तु॒रा। अर्व॑द्भि॒र्यो हरि॑भि॒र्जोष॒मीय॑ते॒ सो अ॑स्य॒ कामं॒ हरि॑वन्तमानशे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर॑म् । कामा॑य । हर॑य: । द॒ध॒न्वि॒रे॒ । स्थि॒राय॑ । हि॒न्व॒न् । हर॑य: । हरी॒ इति॑ । तु॒रा ॥ अर्व॑त्ऽभि: । य: । हरिऽभि: । जोष॑म् । ईय॑ते । स: । अ॒स्य॒ । काम॑म् । हरि॑ऽवन्तम् । आ॒न॒शे॒ ॥३१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरं कामाय हरयो दधन्विरे स्थिराय हिन्वन्हरयो हरी तुरा। अर्वद्भिर्यो हरिभिर्जोषमीयते सो अस्य कामं हरिवन्तमानशे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरम् । कामाय । हरय: । दधन्विरे । स्थिराय । हिन्वन् । हरय: । हरी इति । तुरा ॥ अर्वत्ऽभि: । य: । हरिऽभि: । जोषम् । ईयते । स: । अस्य । कामम् । हरिऽवन्तम् । आनशे ॥३१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (हरयः) सिंह [समान बलवान्] (हरयः) दुःख हरनेवाले मनुष्यों ने (कामाय) कामना पूरी करने के लिये (तुरा) शीघ्रकारी (हरी) दुःख हरनेवाले दोनों बल और पराक्रम को (स्थिराय) दृढ़ स्वभाववाले [सेनापति] के निमित्त (अरम्) पूरा-पूरा (दधन्विरे) प्राप्त किया और (हिन्वन्) बढ़ाया है। (यः) जो मनुष्य (अर्वद्भिः) घोड़ों [के समान शीघ्रगामी] (हरिभिः) दुःख हरनेवाले मनुष्यों के साथ (जोषम्) प्रीति (ईयते) प्राप्त करता है, (सः) उसने ही (हरिवन्तम्) श्रेष्ठ मनुष्योंवाली (अस्य) अपनी (कामम्) कामना को (आनशे) फैलाया है ॥२॥

    भावार्थ - जहाँ पर विद्वान् लोग राजा के लिये बल और पराक्रम करते हैं और राजा विद्वानों से प्रीति करता है, वहाँ सब उत्तम कामनाएँ पूरी होकर आनन्द बढ़ता है ॥२॥

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