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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 31

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 31/ मन्त्र 4
    सूक्त - बरुः सर्वहरिर्वा देवता - हरिः छन्दः - जगती सूक्तम् - सूक्त-३१

    स्रुवे॑व यस्य॒ हरि॑णी विपे॒ततुः॒ शिप्रे॒ वाजा॑य॒ हरि॑णी॒ दवि॑ध्वतः। प्र यत्कृ॒ते च॑म॒से मर्मृ॑ज॒द्धरी॑ पी॒त्वा मद॑स्य हर्य॒तस्यान्ध॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्रुवा॑ऽइव । यस्‍य॑ । हरि॑णी॒ इति॑ । वि॒ऽपे॒ततु॑: । शि॒प्रे॒ इति॑ । वाजा॒य । हरि॑णी॒ इति॑ ।‍ दवि॑ध्वत: ॥ प्र । यत् । कृ॒ते । च॒म॒से । मर्मृ॑जत् । हरी॒ इति॑ । पी॒त्वा । मद॑स्य । ह॒र्य॒तस्य॑ । अन्ध॑स: ॥३१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्रुवेव यस्य हरिणी विपेततुः शिप्रे वाजाय हरिणी दविध्वतः। प्र यत्कृते चमसे मर्मृजद्धरी पीत्वा मदस्य हर्यतस्यान्धसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्रुवाऽइव । यस्‍य । हरिणी इति । विऽपेततु: । शिप्रे इति । वाजाय । हरिणी इति ।‍ दविध्वत: ॥ प्र । यत् । कृते । चमसे । मर्मृजत् । हरी इति । पीत्वा । मदस्य । हर्यतस्य । अन्धस: ॥३१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 31; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (वाजाय) अन्न के लिये (यस्य) जिस [सेनापति] के (हरिणी) स्वीकार करने योग्य (शिप्रे) दोनों जावड़े (स्रुवा इव) दो चमचाओं के समान (विपेततुः) विविध प्रकार चलते हैं, [उसके राज्य में] (हरिणी) सुख हरनेवाली [अविद्या और कुनीति] दोनों (दविध्वतः) सर्वथा मिट जाती हैं। (यत्) क्योंकि वह (चमसे कृते) भोजन सिद्ध होने पर (मदस्य) आनन्ददायक, (हर्यतस्य) कामनायोग्य (अन्धसः) अन्न का (पीत्वा) पान करके (हरी) बल और पराक्रम दोनों को (प्र) अच्छे प्रकार (मर्मृजत्) शुद्ध करता है ॥४॥

    भावार्थ - जैसे अन्न खाने से भूख मिटती है और स्रुवा से अग्नि में घी डालने से धुआँ नष्ट हो जाता है, वैसे ही जो राजा विद्या और सुनीति के फैलाने से अविद्या और कुनीति मिटाता है, वह अन्न के भोजन से बल और पराक्रम बढ़ाता है ॥४॥

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