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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
    सूक्त - इरिम्बिठिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-५

    दी॒र्घस्ते॑ अस्त्वङ्कु॒शो येना॒ वसु॑ प्र॒यच्छ॑सि। यज॑मानाय सुन्व॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दी॒र्घ: । ते॒ । अ॒स्तु॒ । अ॒ङ्कु॒श: । येन॑ । वसु॑ । प्र॒ऽयच्छ॑स‍ि । यज॑मानाय । सु॒न्व॒ते ॥५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दीर्घस्ते अस्त्वङ्कुशो येना वसु प्रयच्छसि। यजमानाय सुन्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दीर्घ: । ते । अस्तु । अङ्कुश: । येन । वसु । प्रऽयच्छस‍ि । यजमानाय । सुन्वते ॥५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 5; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [हे शूर !] (ते) तेरा (अङ्कुशः) अङ्कुश [दण्डसाधन] (दीर्घः) लम्बा (अस्तु) होवे, (येन) जिसके कारण से (सुन्वते) तत्त्व रस निचोड़नेवाले (यजमानाय) यजमान [दाता पुरुष] को (वसु) धन (प्रयच्छसि) तू देता है ॥४॥

    भावार्थ - राजा दुष्टों के दण्ड देने में निष्पक्ष और प्रचण्ड होकर सज्जनों का मान बढ़ावे ॥४॥

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