अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
इन्द्र॑ त्वा वृष॒भं व॒यं सु॒ते सोमे॑ हवामहे। स पा॑हि॒ मध्वो॒ अन्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । त्वा॒ । वृ॒ष॒भम् । व॒यम् । सु॒ते । सोमे॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ । स: । पा॒हि॒ । मध्व॑: । अन्ध॑स: ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र त्वा वृषभं वयं सुते सोमे हवामहे। स पाहि मध्वो अन्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । त्वा । वृषभम् । वयम् । सुते । सोमे । हवामहे । स: । पाहि । मध्व: । अन्धस: ॥६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
विषय - राजा और प्रजा के विषय का उपदेश।
पदार्थ -
(इन्द्रः) हे इन्द्रः [अत्यन्त ऐश्वर्यवाले राजन्] (वृषभम्) बलिष्ठ (त्वा) तुझको (सुते) सिद्ध किये हुए (सोमे) सोम [ऐश्वर्य वा ओषधियों के समूह] में (वयम्) हम (हवामहे) बुलाते हैं। (सः) सो तू (मध्वः) मधुरगुण से युक्त (अन्धसः) अन्न की (पाहि) रक्षा कर ॥१॥
भावार्थ - प्रजाजन सत्कार के साथ ऐश्वर्य देकर धर्मात्मा राजा से अपनी रक्षा करावें, जैसे सद्वैद्य उत्तम ओषधियों से रोगी को अच्छा करता है ॥१॥
टिप्पणी -
यह मन्त्र आचुका है-अ० २०।१।१। यह सूक्त ऋग्वेद में है-३।४०।१-९ ॥ १−अयं मन्त्रो व्याख्यातः-अ० २०।१।१ ॥