Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 65

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 65/ मन्त्र 3
    सूक्त - विश्वमनाः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-६५

    यस्यामि॑तानि वी॒र्या॒ न राधः॒ पर्ये॑तवे। ज्योति॒र्न विश्व॑म॒भ्यस्ति॒ दक्षि॑णा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । अमि॑तानि । वी॒र्या । न । राध॑: । परि॑ऽएतवे ॥ ज्योति॑: । न । विश्व॑म् । अ॒भि । अस्ति॑ । दक्षि॑णा ॥६५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्यामितानि वीर्या न राधः पर्येतवे। ज्योतिर्न विश्वमभ्यस्ति दक्षिणा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । अमितानि । वीर्या । न । राध: । परिऽएतवे ॥ ज्योति: । न । विश्वम् । अभि । अस्ति । दक्षिणा ॥६५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 65; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यस्य) जिस [परमात्मा] के (वीर्या) वीर कर्म (अमितानि) बे-नाप हैं, [जिसका] (राधः) धन (पर्येतवे) पार पाने योग्य (न) नहीं है, और [जिसकी] (दक्षिणा) दक्षिणा [दानशक्ति], (ज्योतिः न) प्रकाश के समान (विश्वम् अभि) सब पर फैलकर (अस्ति) वर्तमान है ॥३॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो ! तुम परमेश्वर की स्तुति नम्रतापूर्वक करके अपना सामर्थ्य बढ़ाओ, वह जगदीश्वर अनन्त बली, अनन्त धनी और अनन्त दानी है ॥२, ३॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top