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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 76

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 76/ मन्त्र 5
    सूक्त - वसुक्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७६

    प्रेर॑य॒ सूरो॒ अर्थं॒ न पा॒रं ये अ॑स्य॒ कामं॑ जनि॒धा इ॑व॒ ग्मन्। गिर॑श्च॒ ये ते॑ तुविजात पू॒र्वीर्नर॑ इन्द्र प्रति॒शिक्ष॒न्त्यन्नैः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ई॒र॒य॒ । सूर॑: । अर्थ॑म् । न । पा॒रम् । ये । अ॒स्य॒ । काम॑म् । ज॒नि॒धा:ऽइ॑व । ग्मन् ॥ गिर॑: । च॒ । ये । ते॒ । तु॒वि॒जा॒त॒ । पू॒र्वी: । नर॑: । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ति॒ऽशिक्ष॑न्ति । अन्नै॑: ॥७६.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेरय सूरो अर्थं न पारं ये अस्य कामं जनिधा इव ग्मन्। गिरश्च ये ते तुविजात पूर्वीर्नर इन्द्र प्रतिशिक्षन्त्यन्नैः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ईरय । सूर: । अर्थम् । न । पारम् । ये । अस्य । कामम् । जनिधा:ऽइव । ग्मन् ॥ गिर: । च । ये । ते । तुविजात । पूर्वी: । नर: । इन्द्र । प्रतिऽशिक्षन्ति । अन्नै: ॥७६.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 76; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (तुविजात) हे बहुत प्रकार से प्रसिद्ध (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (सूरः न) सूर्य के समान तू [उनको] (अर्थम्) पाने योग्य (पारम्) पार की ओर (प्र ईरय) आगे बढ़ा (ये) जो (जनिधाः इव) वीरों को उत्पन्न करनेवाली पत्नियों के धारण करनेवाले के समान (अस्य) उस [तेरे] (कामम्) मनोरथ को (ग्मन्) प्राप्त होते हैं, (च) और (ये) जो (नरः) नेता लोग (ते) तेरे लिये (पूर्वीः) सनातन (गिरः) वाणियों [विद्याओं] को (अन्नैः) अन्नों के साथ (प्रतिशिक्षन्ति) समर्पण करते हैं ॥॥

    भावार्थ - जैसे मनुष्य वीरसू पत्नी का प्रयत्नपूर्वक आदर करते हैं, वैसी ही राजा हितैषी नेता पुरुषों की उन्नति में तत्पर रहें ॥॥

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