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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 77

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 2
    सूक्त - वामदेवः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-७७

    अव॑ स्य शू॒राध्व॑नो॒ नान्ते॒ऽस्मिन्नो॑ अ॒द्य सव॑ने म॒न्दध्यै॑। शंसा॑त्यु॒क्थमु॒शने॑व वे॒धाश्चि॑कि॒तुषे॑ असु॒र्याय॒ मन्म॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । स्य॒ । शू॒र॒ । अध्व॑न: । न । अन्ते॑ । अ॒स्मिन् । न॒: । अ॒द्य । सव॑ने । म॒न्दध्यै॑ ॥ शंसा॑ति । उ॒क्थम् । उ॒शना॑ऽइव । वे॒धा: । चि॒कि॒तुषे॑ । अ॒सु॒र्या॑य । मन्म॑ ॥७७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव स्य शूराध्वनो नान्तेऽस्मिन्नो अद्य सवने मन्दध्यै। शंसात्युक्थमुशनेव वेधाश्चिकितुषे असुर्याय मन्म ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । स्य । शूर । अध्वन: । न । अन्ते । अस्मिन् । न: । अद्य । सवने । मन्दध्यै ॥ शंसाति । उक्थम् । उशनाऽइव । वेधा: । चिकितुषे । असुर्याय । मन्म ॥७७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (शूर) हे शूर ! (अद्य) अब (अस्मिन्) इस (अन्ते) पासवाले (सवने) ऐश्वर्य में (मन्दध्यै) आनन्द करने के लिये (नः) हमारे (अध्वनः) मार्गों को (न) मत (अव स्य) विनष्ट कर। (उशना इव) चाहने योग्य पुरुष के समान (वेधाः) बुद्धिमान् पुरुष (चिकितुषे) ज्ञानवान् (असुर्याय) प्राणियों के हितकारी के लिये (उक्थम्) कहने योग्य कर्म और (मन्म) मननयोग्य ज्ञान को (शंसाति) कहे ॥२॥

    भावार्थ - राजा ऐसा उपाय करे कि सब लोग बे-रोक स्वतन्त्र होकर संसार के पदार्थों से उन्नति करें और विद्वान् लोग मिलकर प्राणियों के हित के लिये विचार करते रहें ॥२॥

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