अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 77/ मन्त्र 4
स्वर्यद्वेदि॑ सु॒दृशी॑कम॒र्कैर्महि॒ ज्योती॑ रुरुचु॒र्यद्ध॒ वस्तोः॑। अ॒न्धा तमां॑सि॒ दुधि॑ता वि॒चक्षे॒ नृभ्य॑श्चकार॒ नृत॑मो अ॒भिष्टौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस्व॑: । यत् । वेदि॑ । सु॒ऽदृशी॑कम् । अ॒र्कै: । महि॑ । ज्योति॑: । रु॒रु॒चु॒: । यत् । ह॒ । वस्तो॑: ॥ अ॒न्धा । तमां॑सि । दुधि॑ता । वि॒ऽचक्षे॑ । नृऽभ्य॑: । च॒का॒र॒ । नृऽत॑म: । अ॒भिष्टौ॑ ॥७७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वर्यद्वेदि सुदृशीकमर्कैर्महि ज्योती रुरुचुर्यद्ध वस्तोः। अन्धा तमांसि दुधिता विचक्षे नृभ्यश्चकार नृतमो अभिष्टौ ॥
स्वर रहित पद पाठस्व: । यत् । वेदि । सुऽदृशीकम् । अर्कै: । महि । ज्योति: । रुरुचु: । यत् । ह । वस्तो: ॥ अन्धा । तमांसि । दुधिता । विऽचक्षे । नृऽभ्य: । चकार । नृऽतम: । अभिष्टौ ॥७७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 77; मन्त्र » 4
विषय - राजा के धर्म का उपदेश।
पदार्थ -
(यत्) जो (अर्कैः) पूजनीय विचारों से (सुदृशीकम्) उत्तम प्रकार से देखने योग्य, (महि) बड़ा (ज्योतिः) प्रकाशमय (स्वः) सुख (वेदि) जाना गया है, और (यत्) जिस [सुख] से (ह) निश्चय करके (वस्तोः) दिन [के समान] (रुरुचुः) वे [विद्वान् जन] प्रकाशित हुए हैं। [उस सुख के लिये] (नृतमः) सबसे बड़े नेता पुरुष ने (अभिष्टौ) सब प्रकार मिलाप में (नृभ्यः) नेता लोगों के निमित्त (विचक्षे) विशेष करके देखने के अर्थ (अन्धा) भारी (तमांसि) अन्धकारों को (दुधिता) नष्ट (चकार) किया है ॥४॥
भावार्थ - जिस सुख को महात्मा लोगों ने बड़े विचारों से अनुभव करके हृदय का आवरण हटाया है, उस सुख को सुनीतिज्ञ राजा सूर्य के प्रकाश के समान विद्वानों में बढ़ाकर प्रजापालन करे ॥४॥
टिप्पणी -
४−(स्वः) सुखम् (यत्) (वेदि) अवेदि। ज्ञानम् (सुदृशीकम्) मृडः कीकच्कङ्कणौ। उ०।२४। दृशेः-कीकच्। सुष्ठु दर्शनीयम् (अर्कैः) पूजनीयविचारैः (महि) महत् (ज्योतिः) प्रकाशमयं (रुरुचुः) दीप्तियुक्ता बभूवुः ते विद्वांसः (यत्) येन सुखेन (ह) निश्चयेन (वस्तोः) दिनम्। दिनप्रकाशो यथा (अन्धा) अन्धानि। निबिडानि (तमांसि) अन्धकारान् (दुधिता) दुहिर् अर्दने-क्त, हस्य ध। दुहितानि। नाशितानि (विचक्षे) चक्षिण् व्यक्तायां वाचि दर्शने च-क्विप्। विशेषेण दर्शनाय (नृभ्यः) नेतृभ्यः (चकार) कृतवान् (नृतमः) अतिशयेन नेता (अभिष्टौ) यजेः क्तिन्। सर्वतः संगतौ ॥