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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-९

    येना॑ समु॒द्रमसृ॑जो म॒हीर॒पस्तदि॑न्द्र॒ वृष्णि॑ ते॒ शवः॑। स॒द्यः सो अ॑स्य महि॒मा न सं॒नशे॒ यं क्षो॒णीर॑नुचक्र॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । स॒मु॒द्रम् । असृ॑ज:। म॒ही: । अ॒प: । तत् । इ॒न्द्र॒ । वृष्णि॑ । ते॒ । शव॑: ॥ स॒द्य: । स: । अ॒स्य॒ । म॒हि॒मा । न । स॒म्ऽनशे॑ । यम् । क्षो॒णी: । अ॒नु॒ऽच॒क्र॒दे॥९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येना समुद्रमसृजो महीरपस्तदिन्द्र वृष्णि ते शवः। सद्यः सो अस्य महिमा न संनशे यं क्षोणीरनुचक्रदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । समुद्रम् । असृज:। मही: । अप: । तत् । इन्द्र । वृष्णि । ते । शव: ॥ सद्य: । स: । अस्य । महिमा । न । सम्ऽनशे । यम् । क्षोणी: । अनुऽचक्रदे॥९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 9; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (येन) जिस [बल] से (समुद्रम्) समुद्र में (महीः) शक्तिशाली (अपः) जलों को (असृजः) तूने उत्पन्न किया है, (इन्द्रः) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] (तत्) वह (ते) तेरा (वृष्णि) पराक्रमयुक्त (शवः) बल है। (सद्यः) अब भी (अस्य) उस [परमात्मा] की (सः) वह (महिमा) महिमा [हमसे] (न) नहीं (संनशे) पाने योग्य है, (यम्) जिस [परमात्मा] को (क्षोणीः) लोकों ने (अनुचक्रदे) निरन्तर पुकारा है ॥४॥

    भावार्थ - जिस परमात्मा ने मेघमण्डल में और पृथिवी पर जल आदि पदार्थ और सब लोकों को उत्पन्न करके अपने वश में रक्खा है, उसकी महिमा की सीमा को सृष्टि में कोई भी नहीं पा सकता है ॥४॥

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