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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 6
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    इन्द्रो॑ व॒लं र॑क्षि॒तारं॒ दुघा॑नां क॒रेणे॑व॒ वि च॑कर्ता॒ रवे॑ण। स्वेदा॑ञ्जिभिरा॒शिर॑मि॒च्छमा॒नोऽरो॑दयत्प॒णिमा गा अ॑मुष्णात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । व॒लम् । र॒क्षि॒तार॑म् । दुघा॑नाम् । क॒रेण॑ऽइव । वि । च॒क॒र्त॒ । रवे॑ण ॥ स्वेदा॑ञ्जिऽभि: । आ॒ऽशिर॑म् । इ॒च्छमान: । अरो॑दयत् । प॒णिम् । आ । गा: । अ॒मु॒ष्णा॒त् ॥९१.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वलं रक्षितारं दुघानां करेणेव वि चकर्ता रवेण। स्वेदाञ्जिभिराशिरमिच्छमानोऽरोदयत्पणिमा गा अमुष्णात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । वलम् । रक्षितारम् । दुघानाम् । करेणऽइव । वि । चकर्त । रवेण ॥ स्वेदाञ्जिऽभि: । आऽशिरम् । इच्छमान: । अरोदयत् । पणिम् । आ । गा: । अमुष्णात् ॥९१.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (इन्द्रः) इन्द्र [बड़े ऐश्वर्यवाले परमेश्वर] ने (दुघानाम्) पूर्तियों के (रक्षितारम्) रखलेनेवाले [रोकनेवाले] (वलम्) हिंसक [विघ्न] को (करेण इव) हाथ से जैसे [वैसे] (रवेण) अपने शब्द [वेद] से (वि चकर्त) काट डाला है। और (स्वेदाञ्जिभिः) मोक्ष के प्रकट करनेवाले व्यवहारों से (आशिरम्) परिपक्वता को (इच्छमानः) चाहते हुए उसने (पणिम्) कुव्यवहारी पुरुष को (अरोदयत्) रुलाया है, और (गाः) प्रकाशों को [उस से] (आ) सर्वथा (अमुष्णात्) छीन लिया है ॥६॥

    भावार्थ - यहाँ (इन्द्र) शब्द (बृहस्पति) अर्थात् परमात्मा का वाचक है। परमात्मा वेद द्वारा मोक्षमार्ग बताकर सुखों के रोकनेवाले विघ्नों को मिटाता है और अधर्मी पापियों को घोर अन्धकार में डालता है ॥६॥

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