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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 5
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    वि॒भिद्या॒ पुरं॑ श॒यथे॒मपा॑चीं॒ निस्त्रीणि॑ सा॒कमु॑द॒धेर॑कृन्तत्। बृह॒स्पति॑रु॒षसं॒ सूर्यं॒ गाम॒र्कं वि॑वेद स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽभिद्य॑: । पुर॑म् । श॒यथा॑ । ई॒म् । अपा॑चीम् । नि: । त्रीणि॑ । सा॒कम् । उ॒द॒ऽधे: । अ॒कृ॒न्त॒त् ॥ बृह॒स्पति॑: । उ॒षस॑म् । सूर्य॑म् । गाम् । अ॒र्कम् । वि॒वे॒द॒ । स्त॒नय॑न्ऽइव । द्यौ: ॥९१.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभिद्या पुरं शयथेमपाचीं निस्त्रीणि साकमुदधेरकृन्तत्। बृहस्पतिरुषसं सूर्यं गामर्कं विवेद स्तनयन्निव द्यौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽभिद्य: । पुरम् । शयथा । ईम् । अपाचीम् । नि: । त्रीणि । साकम् । उदऽधे: । अकृन्तत् ॥ बृहस्पति: । उषसम् । सूर्यम् । गाम् । अर्कम् । विवेद । स्तनयन्ऽइव । द्यौ: ॥९१.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़े ब्रह्माण्डों के स्वामी परमेश्वर] ने (शयथा) सोती हुई (अपाचीम्) ओंधे मुखवाली (ईम्) प्राप्त हुई (पुरम्) पूर्ति [वा नगरी] को (विभिद्य) तोड़ डालकर (त्रीणि) तीनों [धामों अर्थात् स्थान, नाम और जाति जैसे मनुष्य पशु आदि-निरु० ६।२८] को (साकम्) एक साथ (उदधेः) जलवाले समुद्र से (निः अकृन्तत्) छाँट लिया, (द्यौः) उस प्रकाशमान [परमात्मा] ने (स्तनयन् इव) गरजते हुए बादल के समान होकर (उषसम्) तपानेवाले (सूर्यम्) सूर्य को, (गाम्) भूमि को और (अर्कम्) उष्णता देनेवाले अन्न को (विवेद) जताया है ॥॥

    भावार्थ - जो पदार्थ परमाणु रूप से प्रलय के बीच बीजरूप में गड़बड़ पड़े थे, उनको परमात्मा ने जल द्वारा आकारयुक्त करके सूर्य, पृथिवी, अन्न आदि उत्पन्न किये हैं ॥॥

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