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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
    सूक्त - अथर्वा देवता - सवंत्सरः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रायस्पोषप्राप्ति सूक्त

    आयम॑गन्त्संवत्स॒रः पति॑रेकाष्टके॒ तव॑। सा न॒ आयु॑ष्मतीं प्र॒जां रा॒यस्पोषे॑ण॒ सं सृ॑ज ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । अ॒यम् । अ॒ग॒न् । स॒म्ऽव॒त्स॒र: । पति॑: । ए॒क॒ऽअ॒ष्ट॒के॒ । तव॑ । सा । न॑: । आयु॑ष्मतीम् । प्र॒ऽजाम् । रा॒य: । पोषे॑ण । सम् । सृ॒ज॒ ॥१०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आयमगन्त्संवत्सरः पतिरेकाष्टके तव। सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्पोषेण सं सृज ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । अयम् । अगन् । सम्ऽवत्सर: । पति: । एकऽअष्टके । तव । सा । न: । आयुष्मतीम् । प्रऽजाम् । राय: । पोषेण । सम् । सृज ॥१०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 10; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (एकाष्टके) अकेली व्यापक रहनेवाली, वा अकेली भोजन स्थानशक्ति ! [प्रकृति] (अयम्) यह (संवत्सरः) यथावत् निवास देनेवाला, (तव) तेरा (पतिः) पति वा रक्षक [परमेश्वर] (आ अगन्) प्राप्त हुआ है। (सा) लक्ष्मी तू (नः) हमारेलिए (आयुष्मतीम्) बड़ी आयुवाली (प्रजाम्) प्रजा को (रायः) धन की (पोषेण) बढ़ती के साथ (संसृज) संयुक्त कर ॥८॥

    भावार्थ - विद्वान् साक्षात् कर लेते हैं कि परमेश्वर ही प्रकृति, जगत् सामग्री का स्वामी अर्थात् उसके अंशों का संयोजक और वियोजक है और प्रकृति के यथावत् प्रयोग से मनुष्य अपनी सन्तान सहित चिरंजीवी और धनी होते हैं ॥८॥

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