Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 13

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 13/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृगुः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - आपो देवता सूक्त

    यत्प्रेषि॑ता॒ वरु॑णे॒नाच्छीभं॑ स॒मव॑ल्गत। तदा॑प्नो॒दिन्द्रो॑ वो य॒तीस्तस्मा॒दापो॒ अनु॑ ष्ठन ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । प्रऽइ॑षिता: । वरु॑णेन । आत् । शीभ॑म् । स॒म्ऽअव॑ल्गत । तत् । आ॒प्नो॒त् । इन्द्र॑: । व॒: । य॒ती: । तस्मा॑त् । आप॑: । अनु॑ । स्थ॒न॒ ॥१३.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्प्रेषिता वरुणेनाच्छीभं समवल्गत। तदाप्नोदिन्द्रो वो यतीस्तस्मादापो अनु ष्ठन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । प्रऽइषिता: । वरुणेन । आत् । शीभम् । सम्ऽअवल्गत । तत् । आप्नोत् । इन्द्र: । व: । यती: । तस्मात् । आप: । अनु । स्थन ॥१३.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (यत्) जब (आत्) फिर (वरुणेन) सूर्य करके (प्रेषिताः) भेजे हुए तुम (शीभम्) शीघ्र (समवल्गत) मिलकर चलो, (तत्) तव (इन्द्रः) जीव ने [वा सूर्य ने] (यतीः) चलते हुए। (वः) तुमको (आप्नोत्) प्राप्त किया (तस्मात्) उससे (अनु) पीछे (आपः) प्राप्तियोग्य जल [नाम] (स्थन) तुम हो ॥२॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में ‘आप्नोत्’ और ‘आपः’ शब्द एक ही धातु ‘आप्लृ व्याप्तौ’ से सिद्ध है। जब सूर्य की शक्ति से जल भूमि पर आकर फैलता है, तब जीव उसे पाता है, [और सूर्य भी फिर से लेता है] इससे जल का नाम ‘आपः’ पाने योग्य वस्तु है। ‘आपः’ शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top