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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 13/ मन्त्र 6
    सूक्त - भृगुः देवता - वरुणः, सिन्धुः, आपः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् सूक्तम् - आपो देवता सूक्त

    आदित्प॑श्याम्यु॒त वा॑ शृणो॒म्या मा॒ घोषो॑ गच्छति॒ वाङ्मा॑साम्। मन्ये॑ भेजा॒नो अ॒मृत॑स्य॒ तर्हि॒ हिर॑ण्यवर्णा॒ अतृ॑पं य॒दा वः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । इत् । प॒श्या॒मि॒ । उ॒त । वा॒ । शृ॒णो॒मि॒ । आ । मा॒ । घोष॑: । ग॒च्छ॒ति॒ । वाक् । मा॒ । आ॒सा॒म् । मन्ये॑ । भे॒जा॒न: । अ॒मृत॑स्य । तर्हि॑ । हिर॑ण्यऽवर्णा: ।अतृ॑पन् । य॒दा । व॒: ॥१३.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदित्पश्याम्युत वा शृणोम्या मा घोषो गच्छति वाङ्मासाम्। मन्ये भेजानो अमृतस्य तर्हि हिरण्यवर्णा अतृपं यदा वः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । इत् । पश्यामि । उत । वा । शृणोमि । आ । मा । घोष: । गच्छति । वाक् । मा । आसाम् । मन्ये । भेजान: । अमृतस्य । तर्हि । हिरण्यऽवर्णा: ।अतृपन् । यदा । व: ॥१३.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 13; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (आत्) तब (इत्) ही (पश्यामि) मैं देखता हूँ, (उत) और (वा) अथवा (शृणोमि) मैं सुनता हूँ, (आसाम्) इसकी [जल के रस की] (घोषः) ध्वनि (मा) मुझे (आ गच्छति) आती है और (वाक्) वाक्शक्ति (मा) मुझे [आती है]। (हिरण्यवर्णाः) हे कमनीय पदार्थ वा सुवर्ण का विस्तार करनेवाले [जल]। (तर्हि) तभी (अमृतस्य) अमृत का (भेजानः) भोग करता हुआ मैं (मन्ये) अपने को मानूँ, (यदा) जब (वः) तुम्हारी (अतृपम्) तृप्ति मैंने पाई है ॥६॥

    भावार्थ - जल के यथावत् प्रयोग से प्राणी में दर्शनशक्ति और श्रवणशक्ति और ‘घोष’ ध्वन्यात्मक शब्द और ‘वाक्’ वर्णात्मक शब्द बोलने की शक्ति होती है और तभी वह इष्ट सुवर्णादि धन की प्राप्ति से भूख आदि से मृत्युदुःख का त्याग करके अमृत अर्थात् आनन्द भोगता है ॥६॥

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