अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
सूक्त - उद्दालकः
देवता - शितिपाद् अविः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अवि सूक्त
पञ्चा॑पूपं शिति॒पाद॒मविं॑ लो॒केन॒ संमि॑तम्। प्र॑दा॒तोप॑ जीवति सूर्यामा॒सयो॒रक्षि॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑ऽअपूपम् । शि॒ति॒ऽपाद॑म् । अवि॑म् । लो॒केन॑ । सम्ऽमि॑तम् । प्र॒ऽदा॒ता । उप॑ । जी॒व॒ति॒ । सू॒र्या॒मा॒सयो॑: । अक्षि॑तम्॥२९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्चापूपं शितिपादमविं लोकेन संमितम्। प्रदातोप जीवति सूर्यामासयोरक्षितम् ॥
स्वर रहित पद पाठपञ्चऽअपूपम् । शितिऽपादम् । अविम् । लोकेन । सम्ऽमितम् । प्रऽदाता । उप । जीवति । सूर्यामासयो: । अक्षितम्॥२९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
विषय - मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से सुख पाता है।
पदार्थ -
(पञ्चापूपम्) विस्तीर्ण वा [पूर्वादि चार और ऊपर नीचे की पाँचवीं] पाँचों दिशाओं में अटूट शक्तिवाले अथवा बिना सड़ी रोटी देनेवाले, (शितिपादम्) प्रकाश और अन्धकार में गतिवाले, (लोकेन) संसार के (संमितम्) सम्मान किये गए (अविम्) रक्षक प्रभु का [अपने आत्मा में] (प्रदाता) अच्छे प्रकार दान करनेवाला (सूर्यामासयोः) सूर्य और चन्द्रमा में [उनके नियम में] (अक्षितम्) अक्षयता [नित्यवृद्धि] को (उपजीवति) भोगता है ॥५॥
भावार्थ - सूर्य आकर्षण और वृष्टि आदि से पृथिवी आदि लोकों का धारण करता और चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश पाकर हमें पुष्टि पहुँचाता है। इसी प्रकार जो मनुष्य मन्त्रोक्त ईश्वर को अपने हृदय में रखकर परोपकार करता है उसका सुख नित्य बढ़ता है ॥५॥
टिप्पणी -
५−(सूर्यामासयोः) सुवति प्रेरयति लोकान् कर्मणि स सूर्यः। अ० १।३।५। मसी परिमाणे-घञ्। मस्यते परिमीयते गगनं येन स मासः, चन्द्रमाः। सूर्यश्च मासश्च सूर्यामासौ। देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।३।२६। इति आनङ्। सूर्याचन्द्रमसोर्नियमेन। अन्यदुपरि व्याख्यातम् ॥