अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
सूक्त - उद्दालकः
देवता - शितिपाद् अविः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अवि सूक्त
इरे॑व॒ नोप॑ दस्यति समु॒द्र इ॑व॒ पयो॑ म॒हत्। दे॒वौ स॑वा॒सिना॑विव शिति॒पान्नोप॑ दस्यति ॥
स्वर सहित पद पाठइरा॑ऽइव । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । पय॑: । म॒हत् । दे॒वौ । स॒वा॒सिनौ॑ऽइव । शि॒ति॒ऽपात् । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ ॥२९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इरेव नोप दस्यति समुद्र इव पयो महत्। देवौ सवासिनाविव शितिपान्नोप दस्यति ॥
स्वर रहित पद पाठइराऽइव । न । उप । दस्यति । समुद्र:ऽइव । पय: । महत् । देवौ । सवासिनौऽइव । शितिऽपात् । न । उप । दस्यति ॥२९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 6
विषय - मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से सुख पाता है।
पदार्थ -
(शितिपात्) प्रकाश और अन्धकार में गतिवाला परमेश्वर (इरा इव) भूमि वा विद्या के समान और (समुद्रः) समुद्र, अर्थात् (महत्) बड़े (पयः इव) जलराशि के समान (न) नहीं (उप दस्यति) घटता है, और (देवौ) दिव्य गुणवाले (सवासिनौ इव) साथ-साथ निवास करनेवाले दोनों [प्राण और अपना वा दिनरात] के समान वह (न) नहीं (उप दस्यति) घटता है ॥६॥
भावार्थ - जैसे भूमि, विद्या, जल, वायु आदि उचित प्रयोग से अधिक-अधिक उपकारी होते हैं, इसी प्रकार ईश्वर का उपकारी कोश विज्ञान द्वारा मनुष्य को बढ़ाता चला जाता है ॥६॥
टिप्पणी -
६−(इरा) ऋज्रेन्द्राग्रवज्र०। उ० २।२८। इति इण् गतौ-रक्। अथवा, इं कामं सुकामनां राति ददाति। रा दाने-क। टाप्। भूमिः। वाक्। विद्या (नोपदस्यति) म० २। नोपक्षीयते (समुद्रः) जलधिः। अन्तरिक्षं वा (पयः) जलौघः (महत्) विशालम् (देवौ) दिव्यगुणयुक्तौ (सवासिनौ) सह समानं वा निवसन्तौ। अश्विनौ प्राणापानौ। अन्यद् व्याख्यातम् ॥