अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - पर्जन्यः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
आ प॒र्जन्य॑स्य वृ॒ष्ट्योद॑स्थामा॒मृता॑ व॒यम्। व्यहं सर्वे॑ण पा॒प्मना॒ वि यक्ष्मे॑ण॒ समायु॑षा ॥
स्वर सहित पद पाठआ । प॒र्जन्य॑स्य । वृ॒ष्ट्या । उत् । अ॒स्था॒म॒ ॒। अ॒मृता॑: । व॒यम् । वि । अ॒हम् । सर्वे॑ण । पा॒प्मना॑ । वि । यक्ष्मे॑ण । सम् । आयु॑षा ॥३१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पर्जन्यस्य वृष्ट्योदस्थामामृता वयम्। व्यहं सर्वेण पाप्मना वि यक्ष्मेण समायुषा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । पर्जन्यस्य । वृष्ट्या । उत् । अस्थाम । अमृता: । वयम् । वि । अहम् । सर्वेण । पाप्मना । वि । यक्ष्मेण । सम् । आयुषा ॥३१.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 31; मन्त्र » 11
विषय - आयु बढ़ाने का उपदेश।
पदार्थ -
(वयम्) हम (अमृताः) अमर होकर (पर्जन्यस्य) सींचनेवाले मेघ की (वृष्ट्या) बरसा से [जैसे] (आ) सब ओर से (उत् अस्थाम) उठ खड़े हुए हैं, (अहम्) मैं (सर्वेण पाप्मना) सब पाप कर्म से (वि) अलग, और (यक्ष्मेण) राजरोग, क्षयी आदि से (वि=विवर्त्तै) अलग रहूँ, और (आयुषा) जीवन [उत्साह] से (सम्=सम् वर्तै) मिला रहूँ ॥११॥
भावार्थ - मनुष्य इस सूक्त में वर्णित उपदेश के अनुसार ब्रह्मज्ञान के श्रवण मनन और निदिध्यासन [विचार] से ऐसे हर्ष में बढ़े हैं जैसे अन्न आदि औषधें जल की बरसा से नवीन जीवन पाकर उगती हैं, इसलिए प्रत्येक मनुष्य आत्मिक और शारीरिक दोष छोड़कर अपना जीवन का लाभ उठावें ॥११॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥ इति षष्ठः प्रपाठकः ॥ इति तृतीयं काण्डम् ॥
टिप्पणी -
११−(आ) समन्तात् (पर्जन्यस्य) अ० १।२।१। सेचकस्य। मेघस्य (वृष्ट्या) वर्षजलेन। (उत् अस्थाम) तिष्ठतेर्लुङ्। उत्थिता अभूम। (अमृताः) मरणरहिता अमृतत्वं जीवनत्वं प्राप्ताः सन्तः। (वयम्) उपासकाः। अन्यद् व्याख्यातम् ॥