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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमः, पर्णमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त

    ये राजा॑नो राज॒कृतः॑ सू॒ता ग्रा॑म॒ण्य॑श्च॒ ये। उ॑प॒स्तीन्प॑र्ण॒ मह्यं॒ त्वं सर्वा॑न्कृण्व॒भितो॒ जना॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । राजा॑न: । रा॒ज॒ऽकृत॑: । सू॒ता: । ग्रा॒म॒ण्या᳡: । च॒ । ये । उ॒प॒ऽस्तीन् । प॒र्ण॒ । मह्य॑म् । त्वम् । सर्वा॑न् । कृ॒णु॒ । अ॒भित॑: । जना॑न् ॥५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये राजानो राजकृतः सूता ग्रामण्यश्च ये। उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वं सर्वान्कृण्वभितो जनान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । राजान: । राजऽकृत: । सूता: । ग्रामण्या: । च । ये । उपऽस्तीन् । पर्ण । मह्यम् । त्वम् । सर्वान् । कृणु । अभित: । जनान् ॥५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (ये) जो (राजानः) ऐश्वर्यवाले (राजकृतः) राजाओं के बनानेवाले, (च) और (ये) जो (सूताः) सर्वप्रेरक, (ग्रामण्यः) ग्रामों के नेता लोग हैं। (पर्ण) हे पालन करनेवाले परमेश्वर ! (त्वम्) तू (मह्यम्) मेरेलिए (सर्वान्) उन सब (जनान्) जनों को (अभितः) चारों ओर से (उपस्तीन्) समीपवर्ती (कृणु) कर ॥७॥

    भावार्थ - चक्रवर्ती राजा सबके राजाधिराज परमेश्वर का ध्यान करता हुआ अपने हितकारी माण्डलिक राजाओं और अन्य प्रधान पुरुषों को यथोचित व्यवहार से अपना इष्ट मित्र बनाये रक्खे ॥७॥

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