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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमः, पर्णमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त

    सोम॑स्य प॒र्णः सह॑ उ॒ग्रमाग॒न्निन्द्रे॑ण द॒त्तो वरु॑णेन शि॒ष्टः। तं प्रि॑यासं ब॒हु रोच॑मानो दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑स्‍य । प॒र्ण: । सह॑: । उ॒ग्रम् । आ । अ॒ग॒न् । इन्द्रे॑ण । द॒त्त: । वरु॑णेन । शि॒ष्ट: । तम् । प्रि॒या॒स॒म् । ब॒हु । रोच॑मान: । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय ॥५.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमस्य पर्णः सह उग्रमागन्निन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टः। तं प्रियासं बहु रोचमानो दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमस्‍य । पर्ण: । सह: । उग्रम् । आ । अगन् । इन्द्रेण । दत्त: । वरुणेन । शिष्ट: । तम् । प्रियासम् । बहु । रोचमान: । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय ॥५.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (इन्द्रेण) बड़े ऐश्वर्यवाले और (वरुणेन) स्वीकरणीय श्रेष्ठ, गुरु आदि करके (दत्तः) हमें दिया हुआ और (शिष्टः) सिखाया हुआ (सोमस्य) अमृत का (पर्णः) पूर्ण करनेवाला परमेश्वर, (उग्रम्) पराक्रमवाला (सहः) बल [बलरूप], (आ) सब ओर से (अगन्) मिला है। (बहु) अनेक प्रकार से (रोचमानः) रुचि करता हुआ मैं (तम्) उस [अमृतपूरक परमेश्वर] को (शतशारदाय) सौ शरद् ऋतु युक्त (दीर्घायुत्वाय) बड़े जीवन के लिये (प्रियासम्) प्रसन्न करूँ ॥४॥

    भावार्थ - जब मनुष्य विद्वानों की शिक्षा पाकर शुद्ध मुक्त स्वभाव परमेश्वर के ज्ञान से आत्मा में बल पाता है, तब वह धर्मात्मा बड़े उत्साह से परमात्मा की आज्ञा पालता हुआ बड़े अर्थात् यशस्वी जीवन के साथ आनन्द भोगता है ॥४॥ ‘इन्द्रेण दत्तो वरुणेन शिष्टः’ यह पाद, अ० २।२९।४। में और ‘दीर्घायुत्वाय शतशारदाय’ यह पाद, अ० १।३५।१। में आ चुके हैं ॥

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