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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - सोमः, पर्णमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त

    ये धीवा॑नो रथका॒राः क॒र्मारा॒ ये म॑नी॒षिणः॑। उ॑प॒स्तीन्प॑र्ण॒ मह्यं॑ त्वं॒ सर्वा॑न्कृण्व॒भितो॒ जना॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । धीवा॑न: । र॒थ॒ऽका॒रा: । क॒र्मारा॑: । ये । म॒नी॒षिण॑: । उ॒प॒ऽस्तीन् । प॒र्ण॒ । मह्य॑म् । त्वम् । सर्वा॑न् । कृ॒णु॒ । अ॒भित॑: । जना॑न् ॥५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये धीवानो रथकाराः कर्मारा ये मनीषिणः। उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वं सर्वान्कृण्वभितो जनान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । धीवान: । रथऽकारा: । कर्मारा: । ये । मनीषिण: । उपऽस्तीन् । पर्ण । मह्यम् । त्वम् । सर्वान् । कृणु । अभित: । जनान् ॥५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (ये) जो (धीवानः) तीक्ष्ण बुद्धिवाले (रथकाराः) रथों के बनानेवाले और (ये) जो (मनीषिणः) बड़े पण्डित (कर्माराः) कर्मों में गति रखनेवाले शिल्पीजन हैं। (पर्ण) हे पालन करनेवाले परमेश्वर ! (त्वम्) तू (मह्यम्) मेरेलिये (सर्वान्) उन सब (जनान्) जनों को (अभितः) चारों ओर से (उपस्तीन्) समीपवर्ती (कृणु) कर ॥६॥

    भावार्थ - सब मनुष्यों और विशेषकर राजा लोगों को चाहिये कि भूमिरथ, आकाशरथ, जलरथ आदि के बनानेवाले और अन्य शिल्पकर्मी, विश्वकर्मा चतुर विद्वानों का सत्कार करते रहें, जिससे अनेक व्यापारों से संसार में उन्नति होवे ॥६॥

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