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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
    सूक्त - अथर्वा देवता - शङ्खमणिः, कृशनः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त

    हिर॑ण्याना॒मेको॑ऽसि॒ सोमा॒त्त्वमधि॑ जज्ञिषे। रथे॒ त्वम॑सि दर्श॒त इ॑षु॒धौ रो॑च॒नस्त्वं प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यानाम् । एक॑: । अ॒सि॒ । सोमा॑त् । अधि॑ । ज॒ज्ञि॒षे॒ । रथे॑ । त्वम् । अ॒सि॒ । द॒र्श॒त: । इ॒षु॒ऽधौ । रो॒च॒न: । त्वम् । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥१०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यानामेकोऽसि सोमात्त्वमधि जज्ञिषे। रथे त्वमसि दर्शत इषुधौ रोचनस्त्वं प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यानाम् । एक: । असि । सोमात् । अधि । जज्ञिषे । रथे । त्वम् । असि । दर्शत: । इषुऽधौ । रोचन: । त्वम् । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥१०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (हिरण्यानाम्) सूर्यादि तेजों के बीच तू (एकः) एक (असि) है, (त्वम्) तू (सोमात्) सूर्यलोक से (अधि) ऊपर (जज्ञिषे) प्रकट हुआ था, (त्वम्) तू (रथे) रथ में (दर्शतः) दृश्यमान और (त्वम्) तू (इषुधौ) तूणीर में (रोचनः) प्रकाशमान (असि) है। [आप] (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों को (प्रतारिषत्) बढ़ावें ॥६॥

    भावार्थ - अद्वितीय प्रकाशस्वरूप परमात्मा सूर्यादि लोकों से काल और विस्तार में बड़ा है, वही रथारूढ़ और बाणधारी शूर को रणक्षेत्र में बल देता है, उसी जगदीश्वर के आश्रय से हम अपना जीवन धार्मिक बनाकर आनन्द भोगें ॥६॥

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