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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त

    येन॑ दे॒वाः स्व॑रारुरु॒हुर्हि॒त्वा शरी॑रम॒मृत॑स्य॒ नाभि॑म्। तेन॑ गेष्म सुकृ॒तस्य॑ लो॒कं घ॒र्मस्य॑ व्र॒तेन॒ तप॑सा यश॒स्यवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । दे॒वा: । स्व᳡: । आ॒ऽरु॒रु॒हु: । हि॒त्वा । शरी॑रम् । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑म् । तेन॑ । गे॒ष्म॒ । सु॒ऽकृ॒तस्य॑ । लो॒कम् । घ॒र्मस्य॑ । व्र॒तेन॑ । तप॑सा । य॒श॒स्यव॑: ॥११.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन देवाः स्वरारुरुहुर्हित्वा शरीरममृतस्य नाभिम्। तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं घर्मस्य व्रतेन तपसा यशस्यवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । देवा: । स्व: । आऽरुरुहु: । हित्वा । शरीरम् । अमृतस्य । नाभिम् । तेन । गेष्म । सुऽकृतस्य । लोकम् । घर्मस्य । व्रतेन । तपसा । यशस्यव: ॥११.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (येन) जिस [परमात्मा] के द्वारा (देवाः) व्यवहारकुशल पुरुष (शरीरम्) नाशमान शरीर [देह अभिमान] (हित्वा) छोड़ कर (अमृतस्य) अमरपन के (नाभिम्) केन्द्र (स्वः) स्वर्ग को (आरुरुहुः) चढ़े थे। (तेन) उसी [ईश्वर] के सहारे से (यशस्यवः) यश चाहनेवाले हम लोग (घर्मस्य) दीप्यमान सूर्य के [समान] (व्रतेन) कर्म और (तपसा) सामर्थ्य से (सुकृतस्य) पुण्य के (लोकम्) लोक [परमात्मा] को (गेष्म) खोजें ॥६॥

    भावार्थ - जैसे पूर्वज महात्मा परमात्मा की भक्ति से मोक्षसुख पाकर अमर अर्थात् कीर्तिमान् हुए हैं, उसी प्रकार हम परमेश्वर की आज्ञा पाल कर संसार में उपकार करके यशस्वी होवें, जैसे सूर्य अपने तेज से वृष्टि दान और आकर्षण आदि करके लोक का उपकार करता है ॥६॥

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