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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 11/ मन्त्र 12
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त

    दु॒हे सा॒यं दु॒हे प्रा॒तर्दु॒हे म॒ध्यंदि॑नं॒ परि॑। दोहा॒ ये अ॑स्य सं॒यन्ति॒ तान्वि॒द्मानु॑पदस्वतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒हे । सा॒यम् । दु॒हे । प्रा॒त: । दु॒हे । म॒ध्यंदि॑नम् । परि॑ । दोहा॑: । ये । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽयन्ति॑ । तान् । वि॒द्म॒ । अनु॑पऽदस्वत ॥११.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुहे सायं दुहे प्रातर्दुहे मध्यंदिनं परि। दोहा ये अस्य संयन्ति तान्विद्मानुपदस्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुहे । सायम् । दुहे । प्रात: । दुहे । मध्यंदिनम् । परि । दोहा: । ये । अस्य । सम्ऽयन्ति । तान् । विद्म । अनुपऽदस्वत ॥११.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    वह [परमेश्वर] (सायम्) सायंकाल में (परि) सब ओर से (दुहे=दुग्धे) पूर्ण करता है। (प्रातः) प्रातःकाल (दुहे) पूर्ण करता है। (मध्यंदिनं) मध्याह्न में (दुहे) पूर्ण करता है। (अस्य) सर्वव्यापक वा सर्वरक्षक विष्णु के (ये) जो (दोहाः) पूर्त्तिप्रवाह (संयन्ति) बटुरते रहते हैं (तान्) उनको (अनुपदस्वतः) अक्षय (विद्म) हम जानते हैं ॥१२॥

    भावार्थ - परमेश्वर का सदा अक्षय भण्डार है, ऐसा जानकर मनुष्य विज्ञानपूर्वक आगे बढ़ता रहे ॥१२॥

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