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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 12
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
    91

    दु॒हे सा॒यं दु॒हे प्रा॒तर्दु॒हे म॒ध्यंदि॑नं॒ परि॑। दोहा॒ ये अ॑स्य सं॒यन्ति॒ तान्वि॒द्मानु॑पदस्वतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒हे । सा॒यम् । दु॒हे । प्रा॒त: । दु॒हे । म॒ध्यंदि॑नम् । परि॑ । दोहा॑: । ये । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽयन्ति॑ । तान् । वि॒द्म॒ । अनु॑पऽदस्वत ॥११.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुहे सायं दुहे प्रातर्दुहे मध्यंदिनं परि। दोहा ये अस्य संयन्ति तान्विद्मानुपदस्वतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुहे । सायम् । दुहे । प्रात: । दुहे । मध्यंदिनम् । परि । दोहा: । ये । अस्य । सम्ऽयन्ति । तान् । विद्म । अनुपऽदस्वत ॥११.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 12
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    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    वह [परमेश्वर] (सायम्) सायंकाल में (परि) सब ओर से (दुहे=दुग्धे) पूर्ण करता है। (प्रातः) प्रातःकाल (दुहे) पूर्ण करता है। (मध्यंदिनं) मध्याह्न में (दुहे) पूर्ण करता है। (अस्य) सर्वव्यापक वा सर्वरक्षक विष्णु के (ये) जो (दोहाः) पूर्त्तिप्रवाह (संयन्ति) बटुरते रहते हैं (तान्) उनको (अनुपदस्वतः) अक्षय (विद्म) हम जानते हैं ॥१२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर का सदा अक्षय भण्डार है, ऐसा जानकर मनुष्य विज्ञानपूर्वक आगे बढ़ता रहे ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(दुहे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। दुग्धे प्रपूरयति अनड्वान् (सायम्) षो अन्तकर्मणि-णम्, युगागमः। दिनान्ते (प्रातः) प्राततेररन्। उ० ५।५९। इति प्र+अत सातत्यगमने-अरन्। प्रभातकाले (मध्यं दिनम्) राजदन्तादित्वात् मध्यशब्दस्य पूर्वत्वम्। पृषोदरादित्वात् नकारागमः। दिनस्य मध्यम्। मध्याह्नम् (परि) परितः। सर्वतः। (दोहाः) पूर्त्तिप्रवाहाः (अस्य) म० ८। सर्वव्यापकस्य सर्वरक्षकस्य वा विष्णोः परमेश्वरस्य (संयन्ति) इण् गतौ। संगच्छन्ते (तान्) दोहान् (विद्म) विदो लटो वा। पा० ३।४।८३, इति मसो मादेशो वा। विद्मः। जानीमः (अनुपदस्वतः) म० ९। क्षयरहितान् ॥

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    विषय

    प्रातः, सायं व मध्यन्दिन में दोहन

    पदार्थ

    १. प्रभु ने जो वेदधेनु दी है मैं उसका (सायं दुहे) = सायं दोहन करता है, (प्रात: दुहे) = प्रातः उसका दोहन करता हूँ, (मध्यन्दिनं परिदुहे) = मध्याह्न में उसका दोहन करता हूँ। प्रातः, सायं व मध्याह्न में-जब भी समय मिले इस वेदधेनु का दोहन आवश्यक है। २. (अस्य) = इस संसार सञ्चालक प्रभु के (ये) = जो (दोहा:) = ज्ञानदुग्ध के प्रपूरण (संयन्ति) = हमें सम्यक् प्राप्त होते हैं, (तान्) = उन (अनुपदस्वतः) = न क्षय होने देनेवाले दोहों को हम (विद्य) = जानते हैं। ये ज्ञानदुग्ध के दोह हमें विनाश से बचाते हैं।

    भावार्थ

    हम प्रातः, सायं व मध्याह्न में समय मिलने पर सदा वेदधेनु का दोहन करें। इसके द्वारा प्राप्त ज्ञानदुग्ध हमें विनष्ट न होने देगा।

    विशेष

    अगले सूक्त में इस वेदज्ञान से खूब दीप्त होनेवाले 'ऋभु' [उरु भाति] का उल्लेख है। यह इस ज्ञान द्वारा ज्ञात रोहणी ओषधि के प्रयोग से छिन्न अस्थि आदि को ठीक करके शरीर रथ को जीवन-यात्रा के लिए उपयुक्त बनाता है -

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    भाषार्थ

    (सायम्) सायंकाल में (दुहे) मैं, अनड्वान्-परमेश्वर को दोहता हूँ, (प्रातः) प्रातःकाल में (दुहे) चाहता हूँ, (मध्यंदिनम्, परि) मध्याह्न में (दुहे) दोहता हूँ। (अस्य) इस अनड्वान्-परमेश्वर के (ये दोहाः) जो दोह (संयन्ति) मिलकर हमें प्राप्त होते हैं (तान्) उन्हें (अनुपदस्वतः) अनुपक्षीण (विद्म) हम जानते हैं।

    टिप्पणी

    [रात्रियों में (अश्विनोः काल में) तो ब्रह्म का ध्यान करना ही चाहिए, परन्तु दिन के तीन कालों में भी अनड्वान्-परमेश्वर से यथा सम्भव शक्तिरूपी दोहों की प्रार्थना करनी चाहिएं। ये प्रार्थनाएं दैनिक अन्य कर्तव्यों में बाधक न होकर सहायक हो जाती हैं। ये प्रार्थनाएँ दो कालों के सन्धिकालों में की गई सन्ध्याओं से पृथक हैं। ब्रह्म का जब भी ध्यान करो, लाभप्रद ही है।]

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    विषय

    जगदाधार परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    उक्त प्रजापतिरूप वृषभ की उपासना का फल बतलाते हैं। मैं (सायं दुहे) सायंकाल में उसका आनन्द-रस प्राप्त करता हूं। (प्रातः दुहे) प्रातः काल में उसका आनन्दरस योग-समाधि द्वारा प्राप्त करता हूं और (मध्यंदिनं परि दुहे) मध्य दिवस, मध्याह्न काल में भी उस ही का ध्यान करता हूं। (ये) जो पुरुष (अस्य) इस प्रभु, के (दोहाः) इन रसों को (सं यन्ति) फलरूप से प्राप्त करते हैं हम (तान्) उनको (अनुपदस्वतः) अविनाशी अमर हुआ (विद्म) जानते हैं। जीवन में भी तीन भाग हैं ब्रह्मचर्य काल—२४ वर्ष तक, ४४ वर्ष तक और ४८ वर्ष तक। जो तीनों का पालन करते हैं वे अमृत को प्राप्त करते हैं। देखो छान्दोग्य उपनिषद् (अ० ३। ६) देखो सत्यार्थप्रकाश (समुं० ३)

    टिप्पणी

    इस आलंकारिक अनड्वान् को देख कर मुसलमानों की यह कल्पना है कि बैल के सींग पर पृथ्वी खड़ी है। इसी प्रजापति व्रत के उपलक्ष्य में उस का प्रतिनिधि बड़ा सांड छोड़ा जाता है। इसी अनड्वान् का वर्णन अध्यात्म-प्रकरण में लगता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Universal Burden-Bearer

    Meaning

    I receive the showers of divinity in the morning, I receive the showers in the evening, I receive them at mid-day. The showers of the presence that come to me, we know, are revelations of the eternal, they are imperishable.

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    Translation

    I milk Him in the evening; I milk Him in the morning, I milk Him at noon. The streams of His milk that flow together, those are inexhaustible we know. (Three milkings are : pratah, madhyandina and Sayam i.e., in the morning, at the mid-day and during the evenings)

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    Translation

    We milk out the knowledge of the Sun at the evening, (we milk out the knowledge of the sun at morning), we milk out the knowledge of the sun at noon and the essences which come out from it are known inexhaustible.

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    Translation

    I worship God at evening, at early morn, and at noon. We consider them as immortal, who enjoy God's streams of felicity.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(दुहे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। इति तलोपः। दुग्धे प्रपूरयति अनड्वान् (सायम्) षो अन्तकर्मणि-णम्, युगागमः। दिनान्ते (प्रातः) प्राततेररन्। उ० ५।५९। इति प्र+अत सातत्यगमने-अरन्। प्रभातकाले (मध्यं दिनम्) राजदन्तादित्वात् मध्यशब्दस्य पूर्वत्वम्। पृषोदरादित्वात् नकारागमः। दिनस्य मध्यम्। मध्याह्नम् (परि) परितः। सर्वतः। (दोहाः) पूर्त्तिप्रवाहाः (अस्य) म० ८। सर्वव्यापकस्य सर्वरक्षकस्य वा विष्णोः परमेश्वरस्य (संयन्ति) इण् गतौ। संगच्छन्ते (तान्) दोहान् (विद्म) विदो लटो वा। पा० ३।४।८३, इति मसो मादेशो वा। विद्मः। जानीमः (अनुपदस्वतः) म० ९। क्षयरहितान् ॥

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