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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
    54

    यस्य॑ नेशे य॒ज्ञप॑ति॒र्न य॒ज्ञो नास्य॑ दातेशे॒ न प्र॑तिग्रही॒ता। यो वि॑श्व॒जिद्वि॑श्व॒भृद्वि॒श्वक॑र्मा घ॒र्मं नो॑ ब्रूत यत॒मश्चतु॑ष्पात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । न । ईशे॑ । य॒ज्ञऽप॑ति: । न । य॒ज्ञ: । न । अ॒स्य॒ । दा॒ता । ईशे॑ । न । प्र॒ति॒ऽग्र॒ही॒ता । य: । वि॒श्व॒ऽजित् । वि॒श्व॒ऽभृत् । वि॒श्वऽक॑र्मा । घ॒र्मम् । न॒: । ब्रू॒त॒ । य॒त॒म: । चतु॑:ऽपात् ॥११.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य नेशे यज्ञपतिर्न यज्ञो नास्य दातेशे न प्रतिग्रहीता। यो विश्वजिद्विश्वभृद्विश्वकर्मा घर्मं नो ब्रूत यतमश्चतुष्पात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । न । ईशे । यज्ञऽपति: । न । यज्ञ: । न । अस्य । दाता । ईशे । न । प्रतिऽग्रहीता । य: । विश्वऽजित् । विश्वऽभृत् । विश्वऽकर्मा । घर्मम् । न: । ब्रूत । यतम: । चतु:ऽपात् ॥११.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (न) न तो (यज्ञपतिः) संगतिकर्ता पुरुष, और (न)(यज्ञः) संगतिकर्म (यस्य) जिस [परमेश्वर] का (ईशे=ईष्टे) ईश्वर है, (न) न तो (दाता) दाता, (न)(प्रतिग्रहीता) ग्रहणकर्ता (अस्य) इस का (ईशे) ईश्वर है, (यः) जो (विश्वजित्) सबका जीतनेवाला, (विश्वभृत्) सबका पोषण करनेवाला, (विश्वकर्मा) सब काम करनेवाला, और (यतमः) जौन सा (चतुष्पात्) चारो दिशाओं में स्थिति वा गतिवाला है, (घर्मम्) उस प्रकाशमान सूर्यसदृश परमात्मा को (नः) हमें, [हे ऋषियो !] (ब्रूत) बताओ ॥५॥

    भावार्थ

    उस परमात्मा का शासक कोई अन्य नहीं है, वह सर्वशक्तिमान् सर्वरक्षक, सर्वव्यापक प्रकाशस्वरूप है। उसकी उपासना और अन्वेषणा से सब मनुष्य अपनी उन्नति करें ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(यस्य) घर्मस्य। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० २।३।५२। इति कर्मणि षष्ठी (न) नहि (ईशे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। ईष्टे। शासिता भवति (यज्ञपतिः) यजमानः सङ्गतिकर्ता (यज्ञः) संगतिक्रिया (दाता) दानशीलः (प्रतिग्रहीता) दानस्य स्वीकर्ता (यः) अनड्वान्। घर्मः (विश्वजित्) विश्वस्य जेता (विश्वभृत्) सर्वस्य भर्ता पोषयिता च (विश्वकर्मा) विश्वं सर्वं कर्म कर्तव्यं व्यापारो यस्य। सर्वव्यापारकर्ता (घर्मम्) म० ३। तं दीप्यमानम्। आदित्यरूपम्। अनड्वाहं परमात्मानम् (नः) अस्मभ्यम् (ब्रूत) कथयत। उपदिशत (यतमः) वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्। पा० ५।३।९३। इति यत्-डतमच्। बहूनां मध्ये निर्द्धारित एकः। एषां मध्ये यः (चतुष्पात्) पद स्थैर्ये, गतौ च-घञ्। इति पादः। संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१४०। इति बहुव्रीहेः पादान्तस्य लोपः। चतसृषु दिक्षु पादः स्थितिर्गतिर्वा यस्य सः ॥

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    विषय

    ईशिता न कि ईशितव्य

    पदार्थ

    १. प्रभु वे हैं (यस्य) = जिनका (यज्ञपतिः) = यज्ञों का करनेवाला व्यक्ति (न ईशे) = ईश नहीं बन पाता। यज्ञपति तो क्या (यज्ञः न) = साक्षात् यज्ञ भी प्रभु का ईश नहीं होता। (न अस्य) = न तो इसका (दाता ईशे) = दान देनेवाला ईश होता है, (न प्रतिग्रहीता) = न प्रतिग्रह करनेवाला [लेनेवाला] इसका ईश बनता है, अर्थात् सब यज्ञों व दानादि कर्मों के प्रभु ही ईश हैं, कोई भी प्रभु का ईश नहीं है। २. (य:) = जो (विश्वजित्) = सब धनों का विजय करनेवाले हैं, (विश्वभूत) = सबका भरण करनेवाले हैं, (विश्वकर्मा) = सम्पूर्ण जगत् जिनका कर्म [रचना] है, वह (चतुष्पात्) = चारों दिशाओं में [सर्वत्र] गतिवाले (यतमः) = यज्जातीय-जिस स्वरूपवाले प्रभु हैं, उन (धर्मम्) = आदित्य के समान देदीप्यमान प्रभु को (नः ब्रूत) = हमें बताओ। विद्वान् योगी लोग उस प्रभु का हमारे लिए उपदेश करें।

    भावार्थ

    बड़े-से-बड़ा, पवित्र, धर्मात्मा पुरुष भी जिससे ईशितव्य होता है, उस 'विश्वजित, विश्वभृत, विश्वकर्मा, व्यापक' प्रभु का ज्ञानी लोग हमारे लिए उपदेश करें। -

     

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    भाषार्थ

    (यस्य) जिस अनड्वान् का, (यज्ञपतिः) यज्ञ का स्वामी-यजमान (न ईशे) अधीश्वर नहीं, (न यज्ञ:) न यज्ञ अधीश्वर है, (न अस्य दाता ईशे) न इसके ज्ञान का दानी अधीश्वर है, (न प्रतिग्रहीता) और न दान ग्रहण करनेवाला अधीश्वर है। (यः) जो परमेश्वर (विश्वजित्) विश्व का जेता, (विश्वभृत्) विश्व का भर्ता, (विश्वकर्मा) तथा विश्व का कर्त्ता है, (धर्मम्) उस दीप्यमान का (न:) हमारे प्रति (ब्रूत) कथा करो, (यतमः) जीव, प्रकृति और परमेश्वर में जो कोई कि (चतुष्पात्) चतुष्पाद् ब्रह्म है।

    टिप्पणी

    [अनड्वान् है संसार-शकट का बहन करनेवाला चतुष्पाद् ब्रह्म। संसार का कोई व्यक्ति या कोई कर्म, चतुष्पाद्-ब्रह्म का अधीश्वर नहीं। ब्रह्मविद्या का प्रदाता तथा प्रतिग्रह करनेवाला भी इसका अधीश्वर नहीं। चतुष्पाद् ब्रह्म का वर्णन माण्डूक्य उपनिषद् में हुआ है।]

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    विषय

    जगदाधार परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    (यस्य) जिस परमेश्वर को (यज्ञ-पतिः) यज्ञों का पालक यजमान भी अपने वश नहीं करता और जिस को (यज्ञः न ईशे) यज्ञ भी अपने वश नहीं कर सकता, (अस्य) इस पर (दाता न ईशे) कोई दानी महापुरुष भी प्रभुता नहीं करता, (न प्रति-ग्रहीता) और दान लेने वाला कोई योग्य ब्राह्मण भी इसे वश नहीं कर सकता। (यः) जो प्रभु स्वयं (विश्व-जित्) सब विश्व को विजय करने वाला, (विश्व-भृद्) समस्त विश्व का पालक पोषक, (विश्वकर्मा) सब विश्वः का रचयिता है, हे विद्वान् पुरुषो ! उस सब रसों के बरसाने वाले और तेजःस्वरूप प्रभु का (नः ब्रूत) हमें उपदेश करो। (यतमः) जो (चतुष्पाद्) चार पाद वाला है।

    टिप्पणी

    ब्रह्म के चतुष्पादों का वर्णन देखो ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ उपकोशल का जाबाल सत्यकाम को उपदेश।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Universal Burden-Bearer

    Meaning

    The master institutor and performer of yajna governs it not, nor does he govern its gifts. Neither yajna, nor giver, nor receiver governs it. O sages speak to us of the refulgent illuminant lord, ruler, sustainer and maker of the universe, how great is he, the lord of four phases in terms of our experience and possibilities of Being.

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    Translation

    Who is not governed by the sacrificer nor by the sacrifice, who is not governed by the donor nor by the recipient; who is the conqueror of all, sustainer of all, and accomplisher of all; tell us, who is He the four-footed one (the sun).

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    Translation

    The sun is that which is neither performer of Yajna can govern or the Yajna itself can govern. Neither the giver has his control over it nor the receiver. O ye learned persons! Please preach to us of that hot sun which has its extension in four directions and is controller of all the planets, supporter of all the worlds and the centre of the multifarious operations.

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    Translation

    Neither sacrificer, nor sacrifice, neither giver nor receiver governs and rules God. He is All-winning, All-supporting, All-effecting, O sages, tell us of Him Who pervades all the four regions.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(यस्य) घर्मस्य। अधीगर्थदयेशां कर्मणि। पा० २।३।५२। इति कर्मणि षष्ठी (न) नहि (ईशे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा० ७।१।४१। ईष्टे। शासिता भवति (यज्ञपतिः) यजमानः सङ्गतिकर्ता (यज्ञः) संगतिक्रिया (दाता) दानशीलः (प्रतिग्रहीता) दानस्य स्वीकर्ता (यः) अनड्वान्। घर्मः (विश्वजित्) विश्वस्य जेता (विश्वभृत्) सर्वस्य भर्ता पोषयिता च (विश्वकर्मा) विश्वं सर्वं कर्म कर्तव्यं व्यापारो यस्य। सर्वव्यापारकर्ता (घर्मम्) म० ३। तं दीप्यमानम्। आदित्यरूपम्। अनड्वाहं परमात्मानम् (नः) अस्मभ्यम् (ब्रूत) कथयत। उपदिशत (यतमः) वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्। पा० ५।३।९३। इति यत्-डतमच्। बहूनां मध्ये निर्द्धारित एकः। एषां मध्ये यः (चतुष्पात्) पद स्थैर्ये, गतौ च-घञ्। इति पादः। संख्यासुपूर्वस्य। पा० ५।४।१४०। इति बहुव्रीहेः पादान्तस्य लोपः। चतसृषु दिक्षु पादः स्थितिर्गतिर्वा यस्य सः ॥

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