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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
    70

    अ॑न॒ड्वानिन्द्रः॒ स प॒शुभ्यो॒ वि च॑ष्टे त्र॒यां छ॒क्रो वि मि॑मीते॒ अध्व॑नः। भू॒तं भ॑वि॒ष्यद्भुव॑ना॒ दुहा॑नः॒ सर्वा॑ दे॒वानां॑ चरति व्र॒तानि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒न॒ड्वान् । इन्द्र॑: । स: । प॒शुऽभ्य॑: । वि । च॒ष्टे॒ । त्र॒यान् । श॒क्र: । वि । मि॒मी॒ते॒ । अध्व॑न: । भू॒तम् । भ॒वि॒ष्यत् । भुव॑ना । दुहा॑न: । सर्वा॑ । दे॒वाना॑म् । च॒र॒ति॒ । व्र॒तानि॑ ॥११.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनड्वानिन्द्रः स पशुभ्यो वि चष्टे त्रयां छक्रो वि मिमीते अध्वनः। भूतं भविष्यद्भुवना दुहानः सर्वा देवानां चरति व्रतानि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनड्वान् । इन्द्र: । स: । पशुऽभ्य: । वि । चष्टे । त्रयान् । शक्र: । वि । मिमीते । अध्वन: । भूतम् । भविष्यत् । भुवना । दुहान: । सर्वा । देवानाम् । चरति । व्रतानि ॥११.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवाला (अनड्वान्) प्राण और जीविका पहुँचानेवाला परमेश्वर (पशुभ्यः) व्यक्त वाणीवाले और अव्यक्त वाणी के जीवों के लिये (वि) विविध प्रकार से (चष्टे) देखता है (शक्रः) वह समर्थ परमात्मा (त्रयान्) तीन अवयव [भूमि सूर्य और अन्तरिक्ष] वाले (अध्वनः) मार्गों को (वि) विशेष करके (मिमीते) नापता है। (भूतम्) भूत, (भविष्यत्) भविष्यत् और (भुवना=०-नि) लोकों वा वर्त्तमान वस्तुओं को (दुहानः) परिपूर्ण करता हुआ वह (देवानाम्) इन्द्रियों के (सर्वा व्रतानि) सब कामों को (चरति) सिद्ध करता है ॥२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर संसार के कर्मों का साक्षी होकर तीनों लोकों और तीनों कालों की सुधि रखता, और देखना आदि सब काम करता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(अनड्वान्) म० १। अनसः प्राणस्य जीवनस्य च वाहकः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (सः) प्रसिद्धः (पशुभ्यः) अ० २।२६।१। व्यक्तवाग्भ्योऽव्यक्तवाग्भ्यो जीवेभ्यः-निरु० ११।२९। तेषां हिताय (वि) विविधम् (चष्टे) चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च। चष्टे पश्यतिकर्मा-निघ० ३।११। पश्यति कथयति वा (त्रयान्) संख्याया अवयवे तयप्। पा० ५।२।४२। इति तयप्। द्वित्रिभ्यां तयस्यायज्वा। पा० ५।२।४३। इति तयस्य अयच्। त्र्यवयवान् (शक्रः) शक्तः समर्थः (वि) विशेषेण (मिमीते) माङ् माने शब्दे च। भृञामित्। पा० ७।४।७६। इत्यभ्यासस्य इत्वम्। परिमितान् करोति (अध्वनः) अ० १।४।१। मार्गान् (भूतम्) गतम् (भविष्यत्) अनागतम् (भुवना) भुवनानि। लोकान् वर्तमानानि वस्तूनि वा (दुहानः) दुह प्रपूरणे-शानच्। प्रपूरयन् (सर्वा) सर्वाणि (देवानाम्) इन्द्रियाण्यत्र देवा उच्यन्ते-निरु० १३।११। इन्द्रियाणाम् (व्रतानि) कर्माणि (चरति) करोति ॥

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    विषय

    सर्वद्रष्टा, विधाता

    पदार्थ

    १. (अनड्वान्) = यह संसार-शकट का वहन करनेवाला प्रभु (इन्द्र:) = परमैश्वर्यशाली है। (सः) = वह (पशभ्यः विचष्टे) = सब प्राणियों का ध्यान करता है [looks after] | वह (शक्र:) = सर्वशक्तिमान् प्रभु (त्रयान् अध्वन:) = तीन मार्गों को (विमिमीते) = निर्मित करता है। 'देवयान, पित्यान व जायस्व नियस्व' नामक तीन ही मार्ग हैं, जिनसे यह संसार चलता है। निष्काम कर्मवाले देवयान मार्ग से जाते हैं, सकाम कर्मवाले पितृयान से तथा शास्त्रविरुद्ध कर्म करनेवाले व्यक्ति 'जायस्व नियस्व मार्गवाले होते हैं। २. यह अनड्रान् प्रभु' (भूतम्) = भूतकाल में (भविष्यत्) = भविष्यकाल में तथा (भुवना) = वर्तमान में होनेवाले सब पदार्थों का (दुहान:) = प्रपूरण करता हुआ (देवानाम्) = देवों के (सर्वा व्रतानि) = सब व्रतों को चरति-पुरा करता है। सूर्यादि सब देवों के व्रतों का पालन वे प्रभु ही कर रहे हैं। उसी के शासन में ब्रह्माण्ड के सब पदार्थ गति कर रहे हैं।

    भावार्थ

    प्रभु सभी प्राणियों का ध्यान करते हैं। प्रभु ने कर्मानुसार जीवों के तीन भाग किये हैं-[क] देवयान से जानेवाले, [ख] पितृयान से जानेवाले, [ग]'जायस्व-नियस्व' की गतिवाले। सब लोकों का पूरण प्रभु ही करते हैं। सूर्यादि सब देव प्रभु के शासन में चल रहे हैं|

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    भाषार्थ

    (अनड्वान् इन्द्रः) अनड्वान् है इन्द्र, परमैश्वर्य परमेश्वर, (सः) वह (पशुभ्यः) पशुओं [की रक्षा] के लिए (वि चष्टे) विशेषतया देख रहा है, (शक्र:) शक्तिमान परमेश्वर (त्रयान अध्वन:) जीवन के तीन मार्गों का (विमिमीते) निर्माण करता है। भूतम्, भविष्यद्, भुवना= भुवनानि) भूत, भविष्यद् [तथा वर्तमान] तीनों भुवनों को दोहता हुआ परमेश्वर (देवानाम्) देवों के (सर्वा=सर्वाणि, व्रतानि) सब कर्मों को (चरति) करता है।

    टिप्पणी

    [इन्द्रः=इदि परमैश्वर्य (भ्वादिः)। त्रयान् अध्वन:=आधिभौतिक, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक मार्ग, जीवन के। भूतम् आदि दुहान:= परमेश्वर तीनों कालों के जगत् से, प्रजा के लिए, दुग्ध आदि पदार्थों का दोहन कर रहा है तथा वह सूर्यादि देवों के कर्मों को भी स्वयमेव सम्पादित कर रहा है। व्रतम् कर्मनाम (निघं० २।१)। पशुभ्यः="तवेमे पञ्च पशवो विभक्ता गावो अश्वाः पुरुषा अजावय:" (अथर्व० ११।२।९)।]‌ [१. मन्त्र ११ में अनड्वान् को 'ब्रह्म' कहा है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Universal Burden-Bearer

    Meaning

    Indra, lord omnipotent is the Anadvan who looks after all the living beings of the world. He traverses, comprehends and orders the three modes and dimensions of the universe of thought, energy and matter. Creating, sustaining and dispensing the context of cause and effect of natural dynamics across three dimensions of time he observes and ordains the laws and disciplines of all the divine forces of nature and humanity.

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    Translation

    The draft-ox (of the cosmic cart) is the resplendent Lord. He oversees all the creatures. He, the mighty, measures out three different pathways carefully. Milking the past, the future and the present He discharges all the eternal duties of the bounties of Nature.

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    Translation

    The Sun which is full of splendor, shines for the benefit of all the Creatures. The Sun which is mighty, measures out the three regions-the earth, the firmament and the heaven. The sun milking out the Past, the present and the future performs the Operations of all the rays or Air cloud and rain.

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    Translation

    God is Glorious, He watches over the beasts. The Mighty God measures out three several pathways. He creating all objects in the Past, Present and Future, discharges all the eternal duties of the forces of nature.

    Footnote

    Three pathways: Earth, Space, Heaven.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(अनड्वान्) म० १। अनसः प्राणस्य जीवनस्य च वाहकः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (सः) प्रसिद्धः (पशुभ्यः) अ० २।२६।१। व्यक्तवाग्भ्योऽव्यक्तवाग्भ्यो जीवेभ्यः-निरु० ११।२९। तेषां हिताय (वि) विविधम् (चष्टे) चक्षिङ् व्यक्तायां वाचि दर्शने च। चष्टे पश्यतिकर्मा-निघ० ३।११। पश्यति कथयति वा (त्रयान्) संख्याया अवयवे तयप्। पा० ५।२।४२। इति तयप्। द्वित्रिभ्यां तयस्यायज्वा। पा० ५।२।४३। इति तयस्य अयच्। त्र्यवयवान् (शक्रः) शक्तः समर्थः (वि) विशेषेण (मिमीते) माङ् माने शब्दे च। भृञामित्। पा० ७।४।७६। इत्यभ्यासस्य इत्वम्। परिमितान् करोति (अध्वनः) अ० १।४।१। मार्गान् (भूतम्) गतम् (भविष्यत्) अनागतम् (भुवना) भुवनानि। लोकान् वर्तमानानि वस्तूनि वा (दुहानः) दुह प्रपूरणे-शानच्। प्रपूरयन् (सर्वा) सर्वाणि (देवानाम्) इन्द्रियाण्यत्र देवा उच्यन्ते-निरु० १३।११। इन्द्रियाणाम् (व्रतानि) कर्माणि (चरति) करोति ॥

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