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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - त्र्यवसानाषट्पदानुष्टब्गर्भोपरिष्टाज्जगतीनिचृत्शक्वरी सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
    91

    इन्द्रो॑ रू॒पेणा॒ग्निर्वहे॑न प्र॒जाप॑तिः परमे॒ष्ठी वि॒राट्। वि॒श्वान॑रे अक्रमत वैश्वान॒रे अ॑क्रमतान॒डुह्य॑क्रमत। सोऽदृं॑हयत॒ सोऽधा॑रयत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । रू॒पेण॑ । अ॒ग्नि: । वहे॑न । प्र॒जाऽप॑ति: । प॒र॒मे॒ऽस्थी । वि॒ऽराट् । वि॒श्वान॑रे । अ॒क्र॒म॒त॒ । वै॒श्वा॒न॒रे । अ॒क्र॒म॒त॒ । अ॒न॒डुहि॑ । अ॒क्र॒म॒त॒ । स: । अ॒दृं॒ह॒य॒त॒ । स: । अ॒धा॒र॒य॒त॒ ॥११.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो रूपेणाग्निर्वहेन प्रजापतिः परमेष्ठी विराट्। विश्वानरे अक्रमत वैश्वानरे अक्रमतानडुह्यक्रमत। सोऽदृंहयत सोऽधारयत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । रूपेण । अग्नि: । वहेन । प्रजाऽपति: । परमेऽस्थी । विऽराट् । विश्वानरे । अक्रमत । वैश्वानरे । अक्रमत । अनडुहि । अक्रमत । स: । अदृंहयत । स: । अधारयत ॥११.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रजापतिः) उत्पन्न पदार्थों का रक्षक, (परमेष्ठी) ऊँचे स्थान पर ठहरनेवाला, (विराट्) विशेष प्रकाशमान, (अग्निः) व्यापक वा अग्निरूप (इन्द्रः) सूर्य (रूपेण) अपने रूप से और (वहेन) चलाने के सामर्थ्य से (विश्वानरे) सबके नायक परमात्मा में (अक्रमत) प्रविष्ट हुआ, (वैश्वानरे) सब नायकों के हितकारी परमेश्वर में (अक्रमत्) प्राप्त हुआ, (अनडुहि) जीवन पहुँचानेवाले जगदीश्वर में (अक्रमत्) प्रविष्ट हुआ है, (सः) उस [जगदीश्वर] ने [सूर्य को] (अदृंहयत) दृढ़ किया और (सः) उसने ही (अधारयत) धारण किया है ॥७॥

    भावार्थ

    सूर्य अर्थात् सूर्य आदि बड़े-बड़े लोक अपने आकर्षण आदि शक्तियों के साथ सर्वनियन्ता जगदीश्वर में स्थित हैं, वही उनका धारण-पोषण करता है। उसी की उपासना हम सदा करें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७- (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् सूर्यः (रूपेण) तेजसा (अग्निः) व्यापकः। अग्निरूपः (वहेनः) वहनसामर्थ्येन। आकर्षणेन (प्रजापतिः) प्रजानां प्रजातानां पदार्थानां पालकः (परमेष्ठी) अ० १।७।२। परमे प्रधानस्थाने स्थितः (विराट्) राजृ दीप्तौ-क्विप् विशेषेण दीप्यमानः (विश्वानरे) विश्व+न्दृ नीतौ-अच्। नरे संज्ञायाम्-पा–० ६।३।१२९। इति दीर्घः। सर्वनायके परमेश्वरे (अक्रमत) अक्रामत संक्रान्तवान् प्राप्तवान् (वैश्वानरे) अ० १।१०।४। विश्वनरेभ्यः सर्वनायकेभ्यो हिते परमात्मनि (अनडुहि) म० १। जीवनप्रापके परमेश्वरे (सः) अनड्वान् (अदृंहयत) दृढमकरोत् (अधारयत) धृतवान् ॥

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    विषय

    जीवन्मुक्त

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति (रूपेण इन्द्र:) = रूप से इन्द्र के समान होता है-ब्रह्म की उपासना करता हुआ वह ब्रह्म-सा [ब्रह्म इव] हो जाता है। अग्नि में पड़कर जैसे लोह-शलाका अग्नि-सी हो जाती है, इसीप्रकार यह ब्रह्म में स्थित होकर ब्रह्म-सा बन जाता है। यह (वहेन) = सब लोगों का वहन करने के द्वारा (अग्निः) = [अग्रणी] आगे ले-चलनेवाला होता है। ज्ञान व प्रेरणा देता हुआ सबकी उन्नति का साधक होता है, (प्रजापति:) = सब प्रजाओं का रक्षक होता है। यही मानव जीवन की चरम उन्नति है, अत: यह (परमेष्ठी) = परम स्थान में स्थित है और (विराट) = विशेष रूप से चमकता है। २. यह (विश्वानरे अक्रमत) = सब मनुष्यों में विचरता है-छोटे-से-छोटे से लेकर बड़े-से-बड़े तक सब पुरुषों के सम्पर्क में आता है। जो जिस स्थिति में है उसके प्रति वह उसी के अनुसार गतिवाला होकर उसे उन्हीं शब्दों में उपदेश करता है, जिन्हें कि वह समझ सके। इसी से उस व्यक्ति को 'तथा-गत' कहने लगते हैं। ३. सब मनुष्यों में विचरण करता हुआ यह (वैश्वानरे अक्रमत) = विश्व-नर-हितकारी कर्मों में प्रवृत्त होता है। इस वृत्ति को बनाये रखने के लिए (अनडूहि अक्रमत) = यह संसार-शकट के बाहक प्रभु में विचरता है। प्रभु में स्थित होने से यह काम-क्रोध के आक्रमण से बचा रहता है। (सः) = वे प्रभु ही इसे (अंदृहयत) = दृढ़ बनाते हैं, फिसलने नहीं देते। (सः अधारयत) = वस्तुत: प्रभु ही इसका धारण करते हैं और इसके द्वारा औरों का धारण करते हैं, इसे सदा लोकसंग्रहात्मक कर्मों में प्रवृत्त रखते हैं।

    भावार्थ

    प्रभु का उपासक प्रभु-जैसा ही हो जाता है। सब लोगों का धारण करता हुआ यह उन्हें आगे ले-चलता है। यह सबका नेतृत्व करता है, सबके भले के कार्यों को करता है, परमात्मा में विचरता है। प्रभु इसे दृढ़ बनाते हैं व इसके द्वारा सभी का धारण कराते हैं।

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    भाषार्थ

    [चतुष्पाद् ब्रह्म, मन्त्र ५] चतुष्पाद-ब्रह्म (इन्द्रः) सूर्य है (रूपेण) रूप द्वारा; (अग्निः) अग्नि है (वहेन) जगद् के वहन द्वारा; (प्रजापति:) प्रजाओं का पति है; (परमेष्ठी) परमस्थान में स्थित है, (विराट्) तथा विराटरूप है। (विश्वानरे) विश्वानर में (अक्रमत) वह प्रविष्ट है, (वैश्वानर)१ वैश्वानर में (अक्रमत) प्रविष्ट है, (अनडुहि) अनड्वान् में (अक्रमत) प्रविष्ट है। (सः) उसने (अदृहयत) जगत् को दृढ़ किया है, (सः) उसने जगत् का (अधारयत) धारण किया है।

    टिप्पणी

    [अनडुहि अक्रमत = अनड्वान् है संसार-शकट का वहन करनेवाला परमेश्वर, उसमें प्रविष्ट उससे भिन्न ही होना चाहिए, वह प्रकरण-प्राप्त चतुष्पाद्-ब्रह्म ही है। यद्यपि परमेश्वर और चतुष्पाद्-ब्रह्म एक ही है, तो भी कार्यभेद से ये दो रूप एक ही चतुष्पाद ब्रह्म के हैं। ब्रह्म है बृहत् शक्तिमान् और वह ही परमेश्वर है, जबकि वह ऐश्वर्यवान् जगत् का उत्पादक और धारक होता है। इस प्रकार गुण-कर्म के भेदरूपी उपाधियों द्वारा एक ही ब्रह्म के नाना नाम होते हैं, यथा "तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद् वायुस्तदु चन्द्रमाः। तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ताऽआप: स: प्रजापति:। " (यजु:० ३२।१)। वह सूर्य है, रूप द्वारा। जैसे सूर्य प्रकाशमान है वैसे ब्रह्म भी प्रकाशमान है। इसलिए इसे 'आदित्यवर्णम्' कहा है (यजु० ३१।१८)। वहन द्वारा वह अग्नि है। अग्नि द्वारा अग्निरथों, रेलगाड़ियों तथा मिलों में वहन क्रिया होती है, विद्युत् भीअग्नि ही है। ब्रह्म प्रजाओं का अधिपति है, अतः प्रजापति है । वह परमेष्ठी है, दूर से दूर के स्थानों में तथा सर्वश्रेष्ठ स्थान जीवात्मा में स्थित है। वह विराट् रूप है, विशेषतया प्रदीप्त है। "आदित्यवर्णम्" है (यजु० ३१।१८)। विश्वानर हैं सूर्य और विद्युत, तथा वैश्वानर है अग्निः (वैश्वानर-प्रकरण, निरुक्त, अध्याय ७, पद ६, २३)।ब्रह्म विश्वानर तथा वैश्वानर में प्रविष्ट है।] [१. "अयमेवाग्निर्वैश्वानर इति शाकपूणिः। विश्वानरावेते उत्तरे ज्योतिषी [सूर्य तथा विद्युत] वैश्वानरोऽयम् [भूमिष्ठ-अग्निः] यत् ताभ्यां जायते" (निरुक्त ७।६।२३)।]

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    विषय

    जगदाधार परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    वह विश्ववारक अनड्वान् प्रभु (रूपेण) उज्ज्वल रूप स्वयं (इन्द्रः) साक्षात् इन्द्र अर्थात् समस्त ऐश्वर्यसम्पन्न है और (वहेन) सब पदार्थों को धारण करने और स्थान से स्थानान्तर में भेजने, गति कराने की शक्ति से (अग्निः) अग्नि है। वही विश्व का प्रभु स्वयं (प्रजापतिः) समस्त स्थावर जंगम प्रजा का पालक, (परमेष्ठी) परम मोक्षधाम, सत्य लोक आनन्दमय रूप में विराजमान (विराट्) सब से अधिक एवं विविध प्रकार से प्रकाशमान, एवं स्थूलप्रपञ्च का कर्त्ता है। वही परमात्मा (विश्वानरे अक्रमत) समस्त नर, आत्माओं में प्रविष्ट है। वही (वैश्वानरे) सब शरीरों में विद्यमान जाठर अग्नि और भौतिक अग्नि के भीतर भी विद्यमान है, और वही (अनडुहि अक्रमत) समस्त संसार रूप अनस् = महान् यज्ञ के धारक रूप में भी व्यापक है (सः) वही परमेश्वर (अदृंहयत) इस संसार को स्थूलरूप देकर तेजो-वाष्पमय रूप से इसे बनाता है, और फिर भी इस गुरु, भारवान् पृथिवी आदि पिण्डों से भरे हुए संसार को (सः अधारयत) वही धारण करता है, उनको टकराने और गिरने न देकर थाम रहा है। पांच कार्य हैं (१) रूप = तेजोमय प्रकाश, (२) वहन = गति देना, (३) प्रजापालन, (४) परम आनन्दरूपता, (५) विशालता, इन पांच कार्यों से उसके पांच नाम हैं—इन्द्र, अग्नि, प्रजापति, परमेष्ठी, विराट्। इन पांच रूपों से वह पांच विशाल सर्गों में प्रविष्ट है। वह विश्वानर जीवात्मा में इन्द्र, वैश्वानर में अग्नि, अनुडुह् रूप में प्रजापति, दृहण रूप में परमेष्ठी और धारक रूप में विराट् है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Universal Burden-Bearer

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, in terms of existential form is Agni, light and fire, in terms of sustenance he is Prajapati, father of his children, Parameshthi, lord supreme transcendant, and Virat, infinite and self- refulgent. He pervades in universal humanity, he pervades in universal vital energy, he pervades in life sustaining energies of nature, he strengthens and expands existence, and he bears and sustains the world of his creation.

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    Translation

    The resplendent Lord with His form entered all men; the adorable Lord with His drawing force entered what is beneficial to all men; and the Lord of creatures, staying in the highest abode, superbly glorious entered the draft-ox (of the cosmic cart). He made it steady. He sustained it.

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    Translation

    The celestial electricity with its splendor is Agni, the fire, with its magnetism it is Prajapatih, the support of the worlds which pervades the space and is brilliant. This enters in the fire, this enters into the fire working in the digestion system of living creatures and this enters into the sun.

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    Translation

    God is Lustrous in appearance, Fire in setting things in motion. Nourisher of the animate and inanimate creation, the Embodiment of joy, and the Maker of the material odd. He pervades all souls, fire, and beasts of burden. He firmly fortifies and holds securely the universe.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७- (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् सूर्यः (रूपेण) तेजसा (अग्निः) व्यापकः। अग्निरूपः (वहेनः) वहनसामर्थ्येन। आकर्षणेन (प्रजापतिः) प्रजानां प्रजातानां पदार्थानां पालकः (परमेष्ठी) अ० १।७।२। परमे प्रधानस्थाने स्थितः (विराट्) राजृ दीप्तौ-क्विप् विशेषेण दीप्यमानः (विश्वानरे) विश्व+न्दृ नीतौ-अच्। नरे संज्ञायाम्-पा–० ६।३।१२९। इति दीर्घः। सर्वनायके परमेश्वरे (अक्रमत) अक्रामत संक्रान्तवान् प्राप्तवान् (वैश्वानरे) अ० १।१०।४। विश्वनरेभ्यः सर्वनायकेभ्यो हिते परमात्मनि (अनडुहि) म० १। जीवनप्रापके परमेश्वरे (सः) अनड्वान् (अदृंहयत) दृढमकरोत् (अधारयत) धृतवान् ॥

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