अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
ऋषिः - भृग्वङ्गिराः
देवता - इन्द्रः, अनड्वान्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
57
इन्द्रो॑ जा॒तो म॑नु॒ष्ये॑ष्व॒न्तर्घ॒र्मस्त॒प्तश्च॑रति॒ शोशु॑चानः। सु॑प्र॒जाः सन्त्स उ॑दा॒रे न स॑र्ष॒द्यो नाश्नी॒याद॑न॒डुहो॑ विजा॒नन् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । जा॒त: । म॒नु॒ष्ये᳡षु । अ॒न्त: । घ॒र्म: । त॒प्त: । च॒र॒ति॒ । शोशु॑चान: । सु॒ऽप्र॒जा: । सन् । स: । उ॒त्ऽआ॒रे । न । स॒र्ष॒त् । य: । न । अ॒श्नी॒यात् । अ॒न॒डुह॑: । वि॒ऽजा॒नन् ॥११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो जातो मनुष्येष्वन्तर्घर्मस्तप्तश्चरति शोशुचानः। सुप्रजाः सन्त्स उदारे न सर्षद्यो नाश्नीयादनडुहो विजानन् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । जात: । मनुष्येषु । अन्त: । घर्म: । तप्त: । चरति । शोशुचान: । सुऽप्रजा: । सन् । स: । उत्ऽआरे । न । सर्षत् । य: । न । अश्नीयात् । अनडुह: । विऽजानन् ॥११.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।
पदार्थ
(तप्तः) तपते हुए (घर्मः) सूर्य के समान (शोशुचानः) अत्यन्त प्रकाशमान (इन्द्रः) परमेश्वर (मनुष्येषु अन्तः) मननशील मनुष्यों के भीतर (जातः) प्रकट होकर (चरति) विचरता है। (यः) जो पुरुष (अनडुहः) प्राण और जीविका पहुँचानेवाले परमेश्वर का (न विजानन्) विज्ञान न रखता हुआ (अश्नीयात्) भोजन करे, (सः) वह (सन्) विद्यमान पुरुष (उदारे) बड़े पद पर वर्तमान (सुप्रजाः) उत्तम प्रजा गणों को (न सर्षत्) न पावे ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा मनुष्यादि प्राणियों में निःसन्देह प्रकाशमान है। जो अज्ञानी पुरुष उसकी महिमा को नहीं जानता, वह दुष्ट आप, और उसके साथी प्रजा गण महा दुःख भोगते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (जातः) प्रादुर्भूतः सन् (मनुष्येषु) अ० ३।४।६। मननशीलेषु (अन्तः) मध्ये (घर्मः) अ० ४।१।२। दीप्यमानः। घृणिः सूर्य इव। घर्मः, अहर्नाम-निघ० १।९। (तप्तः) तापयुक्तः (चरति) संचरति। वर्तते (शोशुचानः) शुच दीप्तौ यङन्तात् शानच्। देदीप्यमानः (सुप्रजाः) उत्तमान् पुत्रपौत्रभृत्यादीन् (सन्) अस भुवि-शतृ। विद्यमानः पुरुषः (सः) (उदारे) उत्+आङ्+रा दानादानयोः-क। यद्वा। उत्+ऋ गतिप्रापणयोः। घञ्। महति पदे। उदारो दातृमहतोः, इत्यमरः-२३।१९२। (न) नहि (सर्षत्) सृ गतौ लेटि अडागमः, सिप् च। प्राप्नुयात् (यः) पुरुषः (न) नहि (अश्नीयात्) अश भोजने-विधिलिङ्। भक्षयेत् (अनडुहः) म० १। प्राणस्य जीवनस्य च वाहकस्य परमेश्वरस्य (विजानन्) विशेषेण ज्ञानं प्राप्नुवन् ॥
विषय
प्रभु-ज्ञान, अनासक्ति व मोक्ष
पदार्थ
१. (इन्द्रः) = यह परमैश्वर्यशाली प्रभु (मनुष्येषु अन्तः जातः) = विचारशील मनुष्यों के हृदयों में प्रादर्भूत होता है। (तप्तः धर्मः शोशचान:) = [तप दीप्ती] दीप्त सूर्य के समान चमकता हुआ यह प्रभु (चरति) = सब प्रजाओं में विचरण करता है। हृदय पर वासना के आवरण के कारण ही हम प्रभु को नहीं देख पाते। २. (य:) = जो (अनडुहः विजानन्) = संसार-शकट के सञ्चालक प्रभु को जानता हुआ (न अश्नीयात्) = प्रकृति के भोगों को भोगने में नहीं फँस जाता, (स:) = वह (सुप्रजा: सन्) = इस जीवन में उत्तम प्रजाओं-[सन्तानों व विकासों]-वाला होता हुआ (उदारे) = [उत् आरे] शरीर से आत्मा के बाहर होने पर (न सर्षत्) = फिर भटकता नहीं, अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।
भावार्थ
प्रभु हमारे हृदय-गगन में देदीप्यमान सूर्य की भाँति चमक रहे हैं। प्रभु को जानता हुआ जो भी मनुष्य प्रकृति के भोगों में नहीं फँसता वह इस जन्म में उत्तम शक्तियों के विकास व सन्तानोंवाला होता हुआ शरीर छूटने पर सुदीर्घकाल तक दुबारा शरीर नहीं लेता-मुक्त हो जाता है।
भाषार्थ
(मनुष्येषु अन्तः) मनुष्यों के हृदयों के भीतर (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर (जातः) प्रकट होता है, (घर्मः) प्रदीप्त हुआ, (तप्त:) ज्ञान से चमकता हुआ वह (शोशुचान:) अत्यन्त प्रदीप्त हुआ (चरति) हृदयों में विचरता है। (यः) जो (अनडुहः विजानन्) संसार-शकट के वहन करने वाले को प्रत्यक्ष जानता हुआ (उदारे) उदार जगत् में (न अश्नीयात्) भोगों को भोग न करे, (सः) वह (सुप्रजाः) उत्तम-प्रजनवाला (न सर्षत्) संसार में पुनः सरण नहीं करता, जन्म नहीं लेता।
टिप्पणी
[घर्मः-घृ क्षरणदीप्त्योः (जुहोत्यादिः), दीप्त्यर्थ अभिप्रेत है। तप्तः = “यस्य ज्ञानमयं तपः" (मुण्डक १।१।९)। सुप्रजाः= असिच् समासान्तः (अष्टा० ५।४।१२२)। सर्षत्= सृ गतौ+अट् +सिप्। उदारे= संसार, परमेश्वर के उदार दानों से, भरपूर है; परन्तु ब्रह्मज्ञानी इस उदार संसार में प्रदत्त भोगों का भोग नहीं करता, अतः वह संसार से मुक्त हो जाता है।
विषय
जगदाधार परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(इन्द्रः) परमात्मा (मनुष्येषु अन्तः) मननशील, ज्ञानी पुरुषों के भीतर, हृदय में (जातः) प्रकट होता है और वही (तप्तः) संतप्त (धर्मः) प्रकाशमान सूर्य के समान (शोशुचानः) निरन्तर देदीप्यमान होकर (चरति) सर्वत्र व्यापक है ! (वि-जानन्) ऐसा जानता हुआ इस विश्व में रह कर (न अश्नीयात्) जो पुरुष विषयों का भोग नहीं करता वह (सुप्रजाः सन्) उत्तम प्रजा से युक्त होकर (उद-भरे) देहत्याग के अनन्तर (न) नहीं (सर्षत्) भटकता, संसार में सरण नहीं करता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Universal Burden-Bearer
Meaning
Indra, pervasive presence manifest among humanity vibrates omnipresent as the light and heat of the sun, refulgent and illuminant. The man blest with noble progeny, knowing Indra as such, univolved in material pleasures, would not wander around far away from the divine presence.
Translation
The resplendent one has appeared within men. Glowing brightly He moves about like warm. sunshine; who having realized the draft-ox (of the cosmic cart) does not indulge in worldly pleasures; lie being blessed with good offsprings does not wander (go astray) after death.
Translation
The mighty Sun is conspicuous to the mind of the men, it like the boiling pot (cauldron) highly heated, is active in its operations, brightly glowing through. The man with good children knowing not of the Sun’s activities, if involves him in worldly glamours cannot attain the state of salvation.
Translation
God appears in the hearts of the learned. He glowing and blazing like the Sun is All-pervading. He who knows God, and is free from lust, endowed with good progeny, suffers no affliction after death.
Footnote
Griffith writes the hemistich is unintelligible to him. Its significance is clear.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (जातः) प्रादुर्भूतः सन् (मनुष्येषु) अ० ३।४।६। मननशीलेषु (अन्तः) मध्ये (घर्मः) अ० ४।१।२। दीप्यमानः। घृणिः सूर्य इव। घर्मः, अहर्नाम-निघ० १।९। (तप्तः) तापयुक्तः (चरति) संचरति। वर्तते (शोशुचानः) शुच दीप्तौ यङन्तात् शानच्। देदीप्यमानः (सुप्रजाः) उत्तमान् पुत्रपौत्रभृत्यादीन् (सन्) अस भुवि-शतृ। विद्यमानः पुरुषः (सः) (उदारे) उत्+आङ्+रा दानादानयोः-क। यद्वा। उत्+ऋ गतिप्रापणयोः। घञ्। महति पदे। उदारो दातृमहतोः, इत्यमरः-२३।१९२। (न) नहि (सर्षत्) सृ गतौ लेटि अडागमः, सिप् च। प्राप्नुयात् (यः) पुरुषः (न) नहि (अश्नीयात्) अश भोजने-विधिलिङ्। भक्षयेत् (अनडुहः) म० १। प्राणस्य जीवनस्य च वाहकस्य परमेश्वरस्य (विजानन्) विशेषेण ज्ञानं प्राप्नुवन् ॥
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