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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 8
    ऋषिः - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः, अनड्वान् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अनड्वान सूक्त
    54

    मध्य॑मे॒तद॑न॒डुहो॒ यत्रै॒ष वह॒ आहि॑तः। ए॒ताव॑दस्य प्रा॒चीनं॒ यावा॑न्प्र॒त्यङ्स॒माहि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मध्य॑म् । ए॒तत् । अ॒न॒डुह॑: । यत्र॑ । ए॒ष: । वह॑: । आऽहि॑त: । ए॒ताव॑त् । अ॒स्य॒ । प्रा॒चीन॑म् । यावा॑न् । प्र॒त्यङ् । स॒म्ऽआहि॑त: ॥११.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मध्यमेतदनडुहो यत्रैष वह आहितः। एतावदस्य प्राचीनं यावान्प्रत्यङ्समाहितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मध्यम् । एतत् । अनडुह: । यत्र । एष: । वह: । आऽहित: । एतावत् । अस्य । प्राचीनम् । यावान् । प्रत्यङ् । सम्ऽआहित: ॥११.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 11; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मविद्या और पुरुषार्थ का उपदेश।

    पदार्थ

    (अनडुहः) जीविका पहुँचानेवाले परमात्मा का (एतत्) यह [स्थान वा काल] (मध्यम्) मध्य है (यत्र) जहाँ (एषः) यह (वहः) [आकर्षित] भार (आहितः) धरा हुआ है। (अस्य) सर्वव्यापक वा सर्वरक्षक विष्णु का (एतावत्) उतना ही (प्राचीनम्) प्राचीन काल वा देश है, (यावान्) जितना (प्रत्यङ्) आगामी काल वा देश (समाहितः) सिद्ध है ॥८॥

    भावार्थ

    परमेश्वर की सर्वव्यापकता और नित्यता को विचार कर मनुष्य सावधानी से प्रयत्न करता रहे ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(मध्यम्) अ० १।३३।२। द्वयोरन्तरालम्। गोलस्य। मध्यस्थानम् (एतत्) दृश्यमानं सर्वम् (अनडुहः) म० १। जीवनप्रापकस्य परमेश्वरस्य (यत्र) यस्मिन् स्थाने (एषः) अयम् (वहः) वहनीयः पदार्थो भारो वा (आहितः) धा-क्त। स्थापितः (एतावत्) एतत्परिमाणयुक्तम् (अस्य) अतति सर्वं व्याप्नोतीति अः। अत सातत्यगमने-ड। यद्वा अवति रक्षतीति अव रक्षणे ड। अः विष्णुः। सर्वव्यापकस्य सर्वरक्षकस्य वा परमेश्वरस्य (प्राचीनम्) विभाषाञ्चतेरदिक्स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति स्वार्थे खः। खस्य ईनादेशः। प्राक् पूर्वः कालो देशो वा (यावान्) यत्परिमाणवान् (प्रत्यङ्)। प्रति+अञ्चु-क्विन्। पश्चिमकालः। पश्चिमदेशः (समाहितः) निष्पन्नः ॥

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    भाषार्थ

    (अनडुहः) संसार-शकट का वहन करनेवाले परमेश्वर का (एतत्) यह (मध्यम्) मध्य प्रदेश है, (यत्र) जहाँ कि (एषः वहः) यह वहन करनेवाला परमेश्वर (आहितः) स्थित है। (एतावत्) इतना ही (अस्य) इस अनड्वान्-परमेश्वर का (प्राचीनम्) पूर्व का भाग है, (यावान्=यावत्) जितना कि (प्रत्यङ्) पश्चिम में (समाहितः) सम्यक् स्थित है।

    टिप्पणी

    [कर्क और मकर राशि को परस्पर मिलानेवाली रेखा राशिचक्र को दो भागों में विभक्त करती है, पूर्वभाग में और पश्चिम भाग में। ये दोनों भाग परिमाण में सम हैं, बराबर-बराबर है। वहनकर्त्ता अनड्वान्-परमेश्वर, इन दो विभागों के मध्य में स्थित हुआ, दोनों भागों का यथावत् वहन करता है, शासन करता है। सौर जगत् में सूर्य कर्क-मकर रेखा को दो बराबर-बराबर भागों में बाँटता है। जनवरी से जून तक ६ महीनों में सूर्य इस रेखा के पूर्व में रहता है, और जुलाई से दिसम्बर तक ६ मासों में पश्चिम में रहता है। इसे ही, मन्त्र में 'प्राचीनम्' तथा 'प्रत्यङ्' द्वारा निर्दिष्ट किया है। 'वहः' का अर्थ है सौर परिवार का वहन करनेवाला सूर्य। आहित:=सूर्य स्थापित किया गया है 'चतुष्पात् ब्रह्म' द्वारा।]

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    विषय

    जगदाधार परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    समस्त विश्व को धारण करने हारे (अनुडुहः) अनडुह रूप प्रभु का (एतत्) यह (मध्यम्) मध्य भाग है (यत्र) जहां (एषः) यह (वहः) ‘वह’ रूपः विश्वभार (आहितः) स्थापित है। (एतावत्) इतना ही (अस्य) इसका (प्राचीनम्) अगला भाग है (यावान्) जितना (प्रत्य) कि पिछला भाग (समाहितः) है। अर्थात् जिस प्रकार बैल की पीठ पर भार रक्खा जाता है तब पीठ का जितना अगला भाग है उतना ही पीठ का पिछला भाग भी है उसी प्रकार इस विश्व का भार परमात्मा के वहन करने हारी शक्ति पर है। उसका अगला विश्व की उत्पत्ति शक्ति का जितना भाग है उतना ही उसकी संहारशक्ति का भाग भी है। जितना उसका भूत हे उतना भविष्यत् भी है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृग्यंगिरा ऋषिः। अनड्वान् देवता। १, ४ जगत्यौ, २ भुरिग्, ७ व्यवसाना षट्पदानुष्टु व्गर्भोपरिष्टाज्जागता निचृच्छक्वरी, ८-१२ अनुष्टुभः। द्वादशर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Universal Burden-Bearer

    Meaning

    This is the centre of this burden bearer wherein this burden of the universe is collected and concentrated. As much is the part of it gone by as is the part coming up front, both the past and the future concentrated in the centre point. (This is the mystery as well as the reality of the infinite burden bearer and, consequentially, of the burden.)

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    Translation

    This is the middle part of the draft-ox (of the cosmic cart) where this shoulder-bar (yoke) is placed, so much of Him extends towards the front as much as towards hind quarters.

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    Translation

    This is the heart of the sun wherein Vaha, the gravitational power is preserved. It is extendent to the same magnitude in the front part as it is extendent in the hind part.

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    Translation

    The sustenance of the universe is the centre of God's power, the front part of creation is as big as the hind one of dissolution.

    Footnote

    God creates, sustains and dissolves the universe. These three aspects have been spoken of as the front, middle and hind parts of God's power. Creation is the front, sustenance the middle, and dissolution the last function of God's power.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(मध्यम्) अ० १।३३।२। द्वयोरन्तरालम्। गोलस्य। मध्यस्थानम् (एतत्) दृश्यमानं सर्वम् (अनडुहः) म० १। जीवनप्रापकस्य परमेश्वरस्य (यत्र) यस्मिन् स्थाने (एषः) अयम् (वहः) वहनीयः पदार्थो भारो वा (आहितः) धा-क्त। स्थापितः (एतावत्) एतत्परिमाणयुक्तम् (अस्य) अतति सर्वं व्याप्नोतीति अः। अत सातत्यगमने-ड। यद्वा अवति रक्षतीति अव रक्षणे ड। अः विष्णुः। सर्वव्यापकस्य सर्वरक्षकस्य वा परमेश्वरस्य (प्राचीनम्) विभाषाञ्चतेरदिक्स्त्रियाम्। पा० ५।४।८। इति स्वार्थे खः। खस्य ईनादेशः। प्राक् पूर्वः कालो देशो वा (यावान्) यत्परिमाणवान् (प्रत्यङ्)। प्रति+अञ्चु-क्विन्। पश्चिमकालः। पश्चिमदेशः (समाहितः) निष्पन्नः ॥

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