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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 13/ मन्त्र 7
    सूक्त - शन्तातिः देवता - चन्द्रमाः, विश्वे देवाः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोग निवारण सूक्त

    हस्ता॑भ्यां॒ दश॑शाखाभ्यां जि॒ह्वा वा॒चः पु॑रोग॒वी। अ॑नामयि॒त्नुभ्यां॒ हस्ता॑भ्यां॒ ताभ्यां॑ त्वा॒भि मृ॑शामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हस्ता॑भ्याम् । दश॑ऽशाखाभ्याम् । जि॒ह्वा । वा॒च: । पु॒र॒:ऽग॒वी । अ॒ना॒म॒यि॒त्नुऽभ्या॑म् । हस्ता॑भ्याम् । ताभ्या॑म् । त्वा॒ । अ॒भि । मृ॒शा॒म॒सि॒ ॥१३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां जिह्वा वाचः पुरोगवी। अनामयित्नुभ्यां हस्ताभ्यां ताभ्यां त्वाभि मृशामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हस्ताभ्याम् । दशऽशाखाभ्याम् । जिह्वा । वाच: । पुर:ऽगवी । अनामयित्नुऽभ्याम् । हस्ताभ्याम् । ताभ्याम् । त्वा । अभि । मृशामसि ॥१३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 13; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (दशशाखाभ्याम्) दश शाखावाले (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों के द्वारा (जिह्वा) जिह्वा (वाचः) वाणी की (पुरोगवी) आगे ले चलनेवाली है। (ताभ्याम्) उन (अनामयित्नुभ्याम्) आरोग्य देनेवाले (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों से (त्वा) तुझको (अभि मृशामसि) हम छूते हैं ॥७॥

    भावार्थ - मनुष्य प्राण अपान और पञ्च भूत परीक्षा द्वारा दस अंगुलियों से दस इन्द्रियों और दस दिशाओं का ज्ञान प्राप्त करके दुःख की निवृत्ति और सुख की प्रवृत्ति करें ॥७॥

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