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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृगुः देवता - आज्यम्, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त

    अ॒जो ह्यग्नेरज॑निष्ट॒ शोका॒त्सो अ॑पश्यज्जनि॒तार॒मग्रे॑। तेन॑ दे॒वा दे॒वता॒मग्र॑ आय॒न्तेन॒ रोहा॑न्रुरुहु॒र्मेध्या॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ज: । हि । अ॒ग्ने: । अज॑निष्ट । शोका॑त् । स: । अ॒प॒श्य॒त् । ज॒नि॒तार॑म् । अग्ने॑ । तेन॑ । दे॒वा: । दे॒वता॑म् । अग्रे॑ । आ॒य॒न् । तेन॑ । रोहा॑न् । रु॒रु॒हु॒: । मेध्या॑स: ॥१४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अजो ह्यग्नेरजनिष्ट शोकात्सो अपश्यज्जनितारमग्रे। तेन देवा देवतामग्र आयन्तेन रोहान्रुरुहुर्मेध्यासः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अज: । हि । अग्ने: । अजनिष्ट । शोकात् । स: । अपश्यत् । जनितारम् । अग्ने । तेन । देवा: । देवताम् । अग्रे । आयन् । तेन । रोहान् । रुरुहु: । मेध्यास: ॥१४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अजः) अजन्मा, वा गतिशील, अज अर्थात् जीवात्मा (शोकात्) दीप्यमान (अग्नेः) सर्वव्यापक अग्नि अर्थात् परमेश्वर से (हि) ही (अजनिष्ट) प्रकट हुआ। (सः) उस (जीवात्मा) ने (अग्रे) पहिले से वर्तमान (जनितारम्) अपने जनक [परमात्मा] को (अपश्यत्) देखा। (तेन) उस [ज्ञान] से (देवाः) देवताओं ने (अग्रे) पहिले काल में (देवताम्) देवतापन (आयन्) पाया, (तेन) उससे ही (मेध्यासः) मेधावी वा पवित्र−स्वभाव पुरुष (रोहान्) चढ़ने योग्य पदों पर (रुरुहुः) चढ़े ॥१॥

    भावार्थ - मनुष्य आदि पिता जगदीश्वर से अपना शरीर और सामर्थ्य पाकर अपने जन्म और वंश का गौरव बढ़ाते हैं, जैसे पूर्वज महात्माओं ने परमात्मा की महिमा पहचानकर मोक्ष आदि उच्च पद पाये हैं ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद १३।५१। में है ॥

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