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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 3
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त

    दि॒व्यस्य॑ सुप॒र्णस्य॒ तस्य॑ हासि क॒नीनि॑का। सा भूमि॒मा रु॑रोहिथ व॒ह्यं श्रा॒न्ता व॒धूरि॑व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒व्यस्य॑ । सु॒ऽप॒र्णस्य॑ । तस्य॑ । ह॒ । अ॒सि॒ । क॒नीनि॑का । सा । भूमि॑म् । आ । रु॒रो॒हि॒थ॒ । व॒ह्यम् । श्रा॒न्ता । व॒धू:ऽइ॑व ॥२०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिव्यस्य सुपर्णस्य तस्य हासि कनीनिका। सा भूमिमा रुरोहिथ वह्यं श्रान्ता वधूरिव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिव्यस्य । सुऽपर्णस्य । तस्य । ह । असि । कनीनिका । सा । भूमिम् । आ । रुरोहिथ । वह्यम् । श्रान्ता । वधू:ऽइव ॥२०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (तस्य) उस (दिव्यस्य) दिव्य गुणवाले (सुपर्णस्य) यथावत् पालनीय जीव की तू (ह) अवश्य (कनीनिका) कमनीया देवी, अथवा नेत्र तारा समान (असि) है। (सा=सा त्वम्) उस तूने (भूमिम्) हृदय भूमि को (आ रुरोहिथ) प्राप्त किया है, (इव) जैसे (श्रान्ता) थकी हुई, वा शान्त स्वभाव, वा जितेन्द्रिय (वधूः) स्त्री (वह्यम्) अपने पाने योग्य पदार्थ को [प्राप्त करती है] ॥३॥

    भावार्थ - जैसे-जैसे योगी समाधि लगाकर परमात्मा की महिमा देखता है, वैसे-वैसे ही परमात्मा उसके हृदय में दृढ़ भूमि होता है, जैसे जितेन्द्रिय स्त्री वा पुरुष ठिकाने पर पहुँचकर ठहर जाता है ॥३॥

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