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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 20/ मन्त्र 7
    सूक्त - मातृनामा देवता - मातृनामौषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - पिशाचक्षयण सूक्त

    क॒श्यप॑स्य॒ चक्षु॑रसि शु॒न्याश्च॑ चतुर॒क्ष्याः। वी॒ध्रे सूर्य॑मिव॒ सर्प॑न्तं॒ मा पि॑शा॒चं ति॒रस्क॑रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒श्यप॑स्य । चक्षु॑: । अ॒सि॒ । शु॒न्या: । च॒ । च॒तु॒:ऽअ॒क्ष्या: । वी॒ध्रे । सूर्य॑म्ऽइव । सर्प॑न्तम् । मा । पि॒शा॒चम् । ति॒र: । क॒र॒: ॥२०.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कश्यपस्य चक्षुरसि शुन्याश्च चतुरक्ष्याः। वीध्रे सूर्यमिव सर्पन्तं मा पिशाचं तिरस्करः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कश्यपस्य । चक्षु: । असि । शुन्या: । च । चतु:ऽअक्ष्या: । वीध्रे । सूर्यम्ऽइव । सर्पन्तम् । मा । पिशाचम् । तिर: । कर: ॥२०.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 20; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    [हे परमात्मन् !] तू (कश्यपस्य) रस पीनेवाले सूर्य का (च) और (चतुरक्ष्याः) पूर्वादि चार प्रकार से व्याप्तिवाली (शुन्याः) बढ़ी हुई दिशा का (चक्षुः) देखनेवाला ब्रह्म (असि) है। (पिशाचम्) मांस खानेवाले [पीड़ादायक] विघ्न को (मा तिरस्करः) गुप्त मत रख [प्रकाश करदे], (वीध्रे) विशेष चमकने के समय अर्थात् मध्याह्न में (सर्पन्तम्) चलते हुए (सूर्यमिव) सूर्य को जैसे [नहीं छिपा सकते] ॥७॥

    भावार्थ - परमात्मा इस सब विशाल संसार को सर्वथा देखता है और सबके दोषों को इस प्रकार जानता है, जैसे दोषहर के सूर्य को। इससे सब मनुष्य दोषों को त्याग कर सदा सुख से रहें ॥७॥

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